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अष्टपाहुडभाषा वचनिका ।
अर्थ-जहां बाह्य आभ्यंतर भेदकरि दोय प्रकार परिग्रहका त्याग होय अर मन वचन काय ऐसें तीनूं योगनिविर्षे संयम तिष्ठै बहुरि कृत कारित अनुमोदना ऐसें तीन करण जामें शुद्ध होय ऐसा ज्ञान होय बहुरि निर्दोष जामैं कृत कारित अनुमोदना आपका नहीं लागै ऐसा खडा पाणिपात्र आहार करै, ऐसें मूर्तिमंत दर्शन होय है ॥
भावार्थ-इहां दर्शन नाम मतका है तहां बाह्य भेष शुद्ध दीखै सो दर्शन सो ही ताके अंतरंग भावकू जनावै, तहां बाह्य परिग्रह तौ धनधान्यादिक अर अन्तरंग परिग्रह मिथ्यात्व कषायादिक सो जहां नहीं होय यथाजात दिगंबर मूर्ति होय, बहुरि इन्द्रिय मनका वश करनां त्रस थावर जीवनिकी दया करनी ऐसा संयम मन वचन काय करि शुद्ध पालनां जहां होय, अर ज्ञान विर्षे विकार करना करावनां अनुमोदनां ऐसें तीन करणनिकरि विकार नहीं होय, अर निर्दोष पाणिपात्र खडा. रहि भोजन करनां, ऐसे दर्शनकी मूर्ति है सो जिनदेवका मत है सो ही वंदने पूजने योग्य है, अन्य पाखंड भेष वंदनें पूजने योग्य नाही हैं ॥१४॥ __आगें कहैं हैं जो इस सम्यग्दर्शनते ही कल्याण अकल्याणका निश्चय होय है;गाथा-सम्मत्तादो णाणं णाणादो सव्वभावउवलद्धी ।
उवलद्धपयत्थे पुण सेयासेयं वियाणेदि ॥ १५ ॥ संस्कृत-सम्यक्त्वात् ज्ञानं ज्ञानात् सर्वभावोपलब्धिः ।
उपलब्धपदार्थे पुनः श्रेयोऽश्रेयो विजानाति॥१५॥ अर्थ-सम्यक्त्वनै तौ ज्ञान सम्यक् होय है, बहुरि सम्यक् ज्ञानते सर्व पदार्थनिकी उपलब्धि कहिये प्राप्ति तथा जानना होय है, बहुरि
उपल