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२४ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचितमुद्रा, केशलौंच करना, एक बार भोजन करना, खडा भोजन करना, दंतधावन न करनां ये अट्ठाईस मूलगुण हैं । बहुरि छियालीस दोष टालि आहार करनां सो एषणा समितिमैं आगया । ईर्यापथ सोधि चालनां सो ईर्यासमितिमैं आय गया । अर दयाका उपकरण तौ मोर पुच्छकी पींछी अर शौचका उपकरण कमंडलुका धारण ऐसा तौ बाह्य भेष है । बहुरि अंतरंग जीवादिक षट् द्रव्य पंचास्ति काय सप्त तत्त्व नव पदार्थनिकू यथोक्त जानि श्रद्धान करनां अर भेदविज्ञानकरि अपनां आत्मस्वरूपका चितवन करनां अनुभव करनां, ऐसा दर्शन जो मत सो मूलसंघका है । ऐसा जिनदर्शन है सो मोक्षमार्गका मूल है, इस मूलतें मोक्षमार्गकी सर्व प्रवृत्ति सफल होय है । बहुरि जे इसौं भ्रष्ट भये हैं ते इस पंचमकालके दोष. जैनाभास भये हैं, ते श्वेतांबर द्राविड यापनीय गोपुच्छपिच्छ निपिच्छ पांच संघ भये हैं तिनि. सूत्र सिद्धांत अपभ्रंश किये हैं बाह्य भेष पलटि विगाड्या है आचरण जिनूंनै ते जिनमतके मूलसंघतै भ्रष्ट हैं तिनिकै मोक्षमार्गकी प्राप्ति नाही है । मोक्षमार्गकी प्राप्ति मूलसंघके श्रद्धान ज्ञान आचरणहीतें है ऐसा नियम जाननां ॥ ११॥ ___ आगें कहैं हैं जो, जे यथार्थ दर्शन” भ्रष्ट हैं अर दर्शनके धारकनितें आप विनय कराया चाहै है ते दुर्गति पावै हैं;गाथा-जे दंसणेसु भहा पाए पाडंति दंसणधराणं ।
ते होंति लल्लमूआ बोही पुण दुल्लहा तेसिं ॥१२॥
१ मुद्रित संस्कृत सटीक प्रतिमें इस गाथाका पूर्वार्द्ध इस प्रकार है जिसका यह अर्थ है कि "जो दर्शन भ्रष्ट पुरुष दर्शन धारियोंके चरणों में नहीं गिरते है"
"जे दंषणेषु भठ्ठा पाए न पंडंति दसणधराणं "उत्तरार्द्ध समान है।