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________________ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित बहुरि धर्मः जो च्युत होता होय ताकू दृढ करनां सो स्थितीकरण अंग है सो जो आप कर्मके उदयके वश” कदाचित् श्रद्धानौं तथा क्रिया आचारसे छूटै तो आपकू फेरि पौरुष करि श्रद्धानमैं दृढ करना । बहुरि तैसैं ही अन्य धर्मात्मा धर्मत च्युत होता होय तौ ताकू उपदेशादिक करि धर्म विर्षे स्थापनां, ऐसैं स्थितीकरण अंग होय है ॥ ६ ॥ बहुरि अरहंत सिद्ध तथा तिनिके बिंब तथा चैत्यालय तथा चतु. विधसंघ तथा शास्त्र इनिवि दासपणां होय जैसैं स्वामीका भत्य दास होय तैसैं, सो वात्सल्य अंग है । तहां धर्मके स्थानकनिकै उपसर्गादिक आवै ताकू अपनी शक्तिसारू मेंटै अपनी शक्ति• छिपावै नांही, यह धर्मरौं अतिप्रीति होय तब होय है ॥ ७ ॥ बहुरि धर्मका उद्योत करनां सो प्रभावना अंग है । तहां अपने आत्माका रत्नत्रयकरिं उद्योत करनां अर दान तप पूजा विधानकरि तथा विद्या अतिशय चमत्कारादिककरि जिनधर्मका उद्योत करनां, ऐसे प्रभावना अंग होय है ॥ ८॥ ऐसें ये आठ अंग सम्यक्त्वके हैं जाके ये प्रकट होय ताकै जानिये सम्यक्त्व है । इहां प्रश्न-जो ये सम्यक्त्वके चिह्न कहे तैसैंही मिथ्यादृष्टीक भी देखें तब सम्यक् मिथ्याका विभाग कैसे होय ? । ताका समाधान-जो जैसैं सम्यक्त्वीकै होथ तैसैं तौ मिथ्यात्वीकै कभीही नहीं होय है तौ हू अपरीक्षककू समान दीखें तहां परीक्षा किये भेद जान्या जाय है । बहुरि परीक्षाविपैं अपना स्वानुभव प्रधान है सर्वज्ञके आगममैं जैसा आत्माका अनुभव होना कह्या है तैसा आपके होय तब ताके होतें अपनी वचन कायकी प्रवृत्ति भी तिस अनुसार होय है, तिस प्रवृत्तिके अनुसार अन्यकी भी वचन कायकी प्रवृत्ति पहचानिये
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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