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चरण में 'मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गोतमो गणी मंगलं कुंदकुंदाद्यो जैनधम्मोस्तु मंगलं ' यह पाठ हमेशह ही पढ़ते हैं।
इसीसे पता लगता है कि स्वामी कुन्दकुन्दाचार्यका आसन इस दिगम्बर जैन समाजमें कितना ऊंचा है ये आचार्य मूलसंघके बड़ेही प्राभाविक आचार्य माने गये हैं अतएव हमारे प्रधानवर्ग मूलसंघके साथ कुन्दकुन्दानायमें आज मी अपनेको प्रगट कर धन्य मानते हैं, वास्तवमें देखा जाय तो जो कुन्दकुन्दानाय है वही मूलसंघ है फिर भी मूलसंघकी असलियत कहाँ है यह प्रगट करनेके लिये कुंद. कुंदआनायको प्रधान माना है और इसी हेतुसे मूलसंघके साथ जो कुंदकुंदआम्नायके लिखने बोलने की शैली है वह योग्य भी है क्योंकि मूलसंघता कुंदकुंदाम्नायमें ही प्रधानतासे मानी जाती है । और इसकी प्रसिद्धि दिगम्बर प्रमुख समाजमें सर्वत्र ही है । अतः किसीके विवाद और संदेहको यहां जगह नहीं है ।
श्रीश्रुतसागरसूरिने इनके षट्पाहुड ग्रंथकी संस्कृत टीकाके प्रत्येक पाहुडके अंतमें इनके पांच नाम लिखे हैं जो कि वे इस प्रकार हैं-श्री पद्मानंदिकुन्दकुन्दाचार्यवक्रग्रीवाचायलाचार्यगृद्धपृच्छाचार्यनामपंचकविराजितेन, इससे यह पता लगता है कि तत्वार्थ सूत्रके कर्ता श्री उमास्वामी और ये एक ही व्यक्ति हों। क्योंकि तत्वार्थ-मोक्षशास्त्र के दशाध्यायके अन्तमें भी तत्वार्थसूत्रकर्तारं गृद्धपिच्छोपलक्षितं। वंदे गणीन्द्रसंज्ञातमुमास्वामिमुनीश्वरं; इसश्लोकमें भी गृद्धपिच्छ ऐसा उमास्वामीजीका विशेषण दिया है इससे तथा विदेहक्षेत्रमें भगवान् श्री१००८ सीमंधरस्वामीद्वारा संबोधित होनेकी कथामेंभी गृद्धपिच्छका विषय आता है तथा कुछ एक विद्वान् द्वारा उमास्वामीजीकी
१ दिगम्बरजैन नामक पत्रके वर्ष १४ वां वीर सं २४४७ वि. सं. १९७७ सन् १९२१ इसवी के पं. नंदलालजी ईडर ( चावली-आगरा ) द्वारा भेजे गये आचार्योंकी पावली और इतिहास नामक लेखकी टिप्पणीस्थ नं.ग की ईडर भंडार वाली पट्टावली में भी कुंदकुंद के पांच नामका श्लोक इस प्रकार मिलता है।
पट्टावली ग. आचार्यकुंदकुंदाख्यो वक्रग्रीवो महामुनिः। एलाचार्यो गृद्धपृच्छः पद्मनंदीति तन्नुतिः॥५॥