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________________ अष्टपाहुडभाषा वचनिका | अब ग्रंथकर्त्ता श्री कुन्दकुन्द आचार्य ग्रंथकी आदि विषै ग्रंथकी उत्पत्ति अर ताका ज्ञानकूं कारण जो परंपरा गुरुका प्रवाह ताकूं मंगलकै अर्थि नमस्कार करें हैं; गाथा -काऊ णमुकारं जिणवरवसहस्स वडमाणस्स । दंसणमग्गं वोच्छामि जहाकम्मं समासेण ॥ १॥ छाया - कृत्वा नमस्कारं जिनवरवृषभस्य वर्द्धमानस्य । दर्शनमार्ग वक्ष्यामि यथाक्रमं समासेन ॥ १ ॥ -- याका देशभाषामय अर्थ — आचार्य कहैं हैं जो मैं जिनवर वृषभ ऐसा जो आदि तीर्थंकर श्री ऋषभदेव बहुरि वर्द्धमान नाम अंतिम तीर्थंकर ताहि नमस्कार करि अर दर्शन कहिये मत ताका मार्ग जो है · ताहि यथा अनुक्रम संक्षेपकरि कहूंगा । भावार्थ -- इहां जिनवर वृषभ ऐसा विशेषण है, ताका ऐसा अर्थ है जो जिन ऐसा शब्दका तौ यह अर्थ है— जो कर्म शत्रुकूं जीतै सो जिन, सो सम्यदृष्टी अत्रतीसूं गाय कर्मकी गुणश्रेणीरूप निर्जरा करनेवाले सर्वही जिन हैं, तिनमें वर कहिये श्रेष्ठ, ऐसे जिनवर नाम गणधर आदिक मुनिनिकूं कहिये, तिनमैं वृषभ कहिये प्रधान ऐसे भगवान तीर्थकर परमदेव हैं । तिनिमैं आदि तौ श्री ऋषभदेव भए, अर इस पंचमकालकी आदि अर चतुर्थकालके अन्त में अंतिम तीर्थंकर श्रीवर्द्धमानस्वामी भये तिनिका विशेषण भया । बहुरि जिनवर वृषभ ऐसे सर्वही तीर्थकर भये, तिनिकूं नमस्कार भया, तहां वर्द्धमान ऐसा विशेषण सर्वहीका जाननां, सर्व ही अन्तरंग वाह्य लक्ष्मीकरि वर्द्धमान हैं । अथवा जिनवर वृषभ शब्द करि तौ आदि तीर्थंकर श्री ऋषभदेव लेने अर बर्द्धमान शब्दकरि अन्तिम तीर्थंकर • लेने, ऐसैं आदि अंत तीर्थंकरकूं नमस्कार करनेतैं मध्यकेकूं नमस्कार
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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