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________________ वचनिकाकारको प्रशस्ति । ४१५ तौ प्रयोजन है नांही धर्मानुराग” यह वचनिका लिखी है, तातै बुद्धिमाननिकै क्षमाही करनेयोग्य है । अर इस ग्रंथकी गाथाकी संख्या ऐसे है:-प्रथम दर्शनपाहुडकी गाथा ३६ । सूत्रपाहुडकी गाथा २७ । चारित्रपाहुडकी गाथा ४५ । बोधपाहुडकी गाथा ६१ । भावपाहुडकी गाथा १६५। मोक्षपाहुडकी गाथा १०६ । लिंगपाहुडकी गाथा २२। शीलपाहुडकी गाथा ४० । एवं पाहुड आठकी गाथाकी संख्या ५०२ हैं। छप्पय । जिनदर्शन निग्रंथरूप तत्वारथ धारन, सूतर जिनके वचन सार चारित व्रत पारन । बोध जैनका जांनि आनका सरन निवारन, __ भाव आतमा बुद्ध मांनि भावन शिव कारन । फुनि मोक्ष कर्मका नाश है लिंग सुधारन तजि कुनय । धरि शील स्वभाव संवारनां आठ पाहुडका फल सुजय ॥ दोहा। भई वचनिका यह जहां सुनो तास संक्षेप । भव्यजीव संगति भली मेटै कुकरमलेप ॥ २॥ जयपुर पुर सूवस वसै तहां राज जगतेश । ताके न्याय प्रतापते सुखी ढुढाहर देश ॥ ३॥ . जैनधर्म जयवंत जग किछु जयपुरमैं लेश । तांमधि जिनमंदिर घणे तिनिको भलो निवेश ॥४॥ तिनिमैं तेरापंथको मंदिर सुंदर एव । धर्मध्यान तामैं सदा जैनी करै सुसेव ॥ ५॥ . शहा।
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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