SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 441
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३९८ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित__ आगैं कहै है जो विषयरूप विष महा प्रबळ है;गाथा-जह विसयलुद्ध विसदो तह थावर जंगमाण घोराणां । सव्वेसिपि विणासदि विसयविसं दारुणं होई ॥२१॥ संस्कृत-यथा विषयलुब्धः विषदः तथा स्थावरजंगमान् घोरान् । सर्वान् अपि विनाशयति विषयविषं दारुणं भवति २१ अर्थ—जैसे विषयनिका सेवनां विष है सो जे विषयनिकै विषै लुब्धजीव हैं तिनिकू विषका देनेवाला है तैसैं ही जे घोर तीव्र स्थावर जंगम सर्वनिका विष है सो प्राणीनिका विनाश करै है तथापि तिनि सर्वनिका विषनिमैं विषयनिका विष उत्कृष्ट है तीव्र है ॥ भावार्थ-जैसैं हस्ती मीन भ्रमर पतंग आदि जीव विषयनिकरि लुब्ध भये विषयनिके वश भये हते जाय हैं तैसैंही स्थावरका विष मोहरा सोमल आदिक अर जंगमका विष सर्प आदिकका विष इनिका भी विषकरि प्राणी हते जाय हैं परन्तु सर्व विषनिमैं विषयनिका विष अतितीव्र ही है॥२१॥ आगैं इसहीका समर्थनकू निषयनिका विषका तीव्रपणां कहै है जोविषकी वेदनाते. तो एकवार मरै है अर विषयनितै संसारमैं भ्रमैं हैं;गाथा-वारि एकम्मि यजम्मे सरिज विसवेयणाहदो जीवो। विसयविसपरिहया णं भमंति संसारकांतारे ॥ २२ ॥ संस्कृत-वारे एकस्मिन् च जन्मनि गच्छेत् विषवेदनाहतः जीवः विषयविषपरिहता भ्रमति संसारकांतारे ॥ २२ ॥ अर्थ-विषकी वेदनाकरि हत्या जो जीव सो तौ एकजन्मविही मरै है बहुरि विषयरूप विषकरि हते गये जीव हैं ते अतिशयकरि संसाररूप वनवि भ्रमैं हैं ॥
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy