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________________ अष्टपाहुडमें शीलपाहुडकी भाषावचीनका। ३९५. __ भावार्थ-व्याकरणादिशास्त्र जानै अर जिनागमकुंभी जानै तौऊ. तिनिमैं शीलही उत्तम है शास्त्रनिकू जानि अर विषयनिमैं ही आसक्त है तौ तिनि शास्त्रनिका जाननां वृथा है उत्तम नाही ॥ ___ आगैं कहै है जो-शील गुणकरि मंडित है ते देवनिकै भी वल्लभ गाथा-सीलगुणमंडिदाणं देवा भवियाण वल्लहा होति । सुदपारयपउरा णं दुस्सीला अप्पिला लोए ॥१७॥ संस्कृत-शीलगुणमंडितानां देवा भव्यानां वल्लभा भवंति । श्रुतपारगप्रचुराः णं दुःशीला अल्पकाः लोके ॥१७॥ अर्थ-जे भव्य प्राणी शील अर सम्यग्दर्शनादिक गुण अथवा शील सो ही गुण ताकरि मंडित हैं तिनिका देवभी बल्लभ होय है तिनिकी सेवा करनेवाले सहायी होय हैं। बहुरि जे श्रुतपारग कहिये शास्त्रके पार पहुंचे हैं ग्यारह अंग ताई पढ़े हैं ऐसे बहुत हैं अर तिनिमैं केई शीलगुणकरि रहित हैं दुःशील हैं विषय कषायनिमैं आसक्त हैं तो ते लोकवि ' अल्पका' कहिये न्यून हैं ते मनुष्य लोकनिकै भी प्रिय न होय है तब देव कहांतें सहायी होय ॥ ___ भावार्थ—शास्त्र बहुत जानै अर विषयासक्त होय तौ ताका कोई सहायी न होय, चोर अर अन्यायीकी लोकमैं कोई सहाय न करै; अर शील गुणकरि मंडित होय अर ज्ञान थोडाभी होय तौ ताकै उपकारी सहायी देवभी होय हैं तब मनुष्य तौ सहायी होयही होय, शीलगुणवान सर्वकै प्यारा होय है ॥ १७॥ ___ आनें कहै है जिनिकै शील है सुशील है तिनिका मनुष्यभवमैं जीवनां सफल है भला है;
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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