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अष्टपाहुडमें शीलपाहुडकी भाषावचनिका ।
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विषय कषाय छोडनां भला है, नातरि ज्ञान
भावार्थ — ज्ञान पाय अज्ञानतुल्यही है || ७ |
आगैं कहै है जो ज्ञान पाय ऐसें करे तब संसार कटै;गाथा - जे पुण विसयविरत्ता णाणं णाऊण भावणासहिदा । छिंदंति चादुरगदिं तवगुणजुत्ता ण संदेहो ॥ ८ ॥ संस्कृत - ये पुनः विषयविरक्ताः ज्ञानं ज्ञात्वा भावनासहिताः ।
छिन्दन्ति चतुर्गतिं तपोगुणयुक्ताः न सन्देहः ॥ ८ ॥ अर्थ — जे ज्ञानकूं जानिकरि अर विषयनितैं विरक्त भये संते तिस ज्ञानकी बारबार अनुभवरूप भावनासहित होय है ते तप अर गुण कहिये मूलगुण उत्तरगुणयुक्त भये संते चतुर्गतिरूप जो संसार है ताहि छेदैं हैं काटें हैं, या मैं संदेह नांही ॥
भावार्थ—ज्ञान पाय विषयकषाय छोडि ज्ञानकी भावना करे, मूलगुण उत्तरगुण ग्रहणकरि तप करै सो संसारका भावकरि मुक्तिप्राप्त होय - यह शीलसहितज्ञानरूप मार्ग है ॥ ८ ॥
आगैं ऐसैं शीलसहित ज्ञानकरि जीव शुद्ध होय है ताका दृष्टान्त कहै है; -
गाथा - जह कंचणं विसुद्ध धम्मइयं खडियलवणलेवेण ।
तह जीवो विविसुद्ध णाणविसलिलेण विमलेण ॥९॥ संस्कृत - यथा कांचनं विशुद्धं धमत् खटिकालवणलेपेन ।
तथा जीवोsपि विशुद्धः ज्ञानविसलिलेन विमलेन ॥ ९ ॥ अर्थ — जैसे कांचन कहिये सुवर्ण है सो खडिय कहिये सुहागा अर लूण इनका लेपकार विशुद्ध निर्मल कांतियुक्त होय है तैसैं जीव है सो भी विषयकषायनिक मलकार रहित निर्मल ज्ञानरूप जलकरि पखाल्या कर्मनिकार रहित विशुद्ध होय है ॥