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अथ शीलपाहुड।
[८] अथ शीलपाहुडग्रंथकी देशभाषामय वचनिका लिखिये है;
दोहा। भवकी प्रकृति निवारिकै प्रगट किये निजभाव ।
है अरहंत जु सिद्ध फुनि बंदूं तिनि धरि चाव ॥१॥ ऐसैं इष्टके नमस्काररूप मंगलकरि शीलपाहुडनाम ग्रंथ श्रीकुन्दकुन्दाचार्यकृत प्राकृत गाथाबंधकी देशभाषामय वचनिका लिखिये है। तहां प्रथम श्रीकुन्दकुन्दाचार्य ग्रंथकी आदिकै विर्षे इष्टकू नमस्काररूप मंगलकरि ग्रंथ करनेकी प्रतिज्ञा करें है;गाथा–वीरं विसालणयणं रत्तुप्पलकोमलस्समप्पा ।
तिविहेण पणमिऊणं सीलगुणाणं णिसामेह ॥१॥ संस्कृत-चीरं विशालनयनं रक्तोत्पलकोमलसमपादम् ।
त्रिविधेन प्रणम्य शीलगुणान् निशाम्यामि ॥१॥ अर्थ-आचार्य कहै है जो मैं वीर कहिये अंतिम तीर्थंकर श्रीवर्द्धमानस्वामी परम. भट्टारक ताहि. मन वचन कायकरि नमस्कारकरि अर शील जो निज भावरूप प्रकृति ताके गुणनिकू अथवा शील अर सम्यग्दर्शनादिक गुण तिनिकू कहूंगा; कैसे हैं श्रीवर्धमानस्वामी-विशालनयन हैं, तिनिकै बाह्य तौ पदार्थनिके देखनेंकू नेत्र विशाल है विस्तीर्ण हैं सुन्दर हैं, बहुरि अंतरंग केवलदर्शन केवलज्ञानरूप नेत्र समस्त पदार्थनिकू देखनेवाले हैं; बहुरि कैसे हैं-रक्तोत्पलकोमलसमपादं'