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________________ अष्टपाहुडमें लिंगपाहुडकी भाषावचीनका । ३७७ संस्कृत - उत्पतति पतति धावति पृथिवीं खनति लिंगरूपेण । ईर्यापथं धारयन् तिर्यग्योनिः न सः श्रमणः || १५ || अर्थ — जो लिंग धारकरि ईर्यापथ सोधि करि चालना था तामैं सोधिकरि न चालै दौडता चालता संता उछलै गिरपडै फेरि उठिकरि दौडै बहुरि पृथ्वी कूं खादै चालतें ऐसा पगपटकै जो ता पृथ्वी खुदि जाय ऐसैं चालै सो तिर्यचयोनि है पशु अज्ञानी है, मनुष्य नांही ॥ १५ ॥ आगे कहै है जो बनस्पति आदि स्थावरजीवनिकी हिंसातें कर्मबंध होय है ताकूं न गिनता स्वच्छंद होय प्रवर्ते है, सो भ्रमण नांही;गाथा - वंधो णिरओ संतो सस्सं खंडेदि तह य वसुहं पि । छिंददि तरुण बहुसो तिरिक्खजोणी ण सो समणो ॥ संस्कृत-वंधं नीरजाः सन् सस्यं खंडयति तथा च वसुधामपि । छिनत्ति तरुणं बहुशः तिर्यग्योनिः न सः श्रमणः ॥ अर्थ — जो लिंग धारणकार अर वनस्पति आदिकी हिंसातें बंध होय है ताकूं नांही दूषता संता बंधकू न गिनता संता सस्य कहिये धान्य ताकूं खंडै है; बहुरि तैसैंही वसुधा कहिये पृथिवी ताहि खंडै है खोदे है, बहुरि बहुत बार तरुगण कहिये वृक्षनिकी समूह तिनिकूं छेद है; ऐसा लिंगी तिर्यचयोनि है, पशु है, अज्ञानी है श्रमण नांही ॥ भावार्थ — वनस्पति आदि स्थावरजीव जिनसूत्र मैं कहे है अर तिनिकी हिंसातें कर्मबंध कया है ताकूं निर्दोष गिणता कहे है जो या मैं काहेका दोष है काका बंध है ऐसें मानता तथा वैद्यकर्मादिककै निमित्त औषधादिककूं धान्यकूं तथा पृथ्वीकूं तथा वृक्षनिकूं खंडे है खोदे है छदै है सो आज्ञानी पशु हैं, लिंग धारि श्रमण कहावै है सो श्रमण नांही है ॥ १६ ॥ आगैं कहै है जो लिंग धारणकार स्त्रीनितैं राग करै है अर परकूं दूषण दे है सो श्रमण नाही;
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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