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अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका।
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मुक्ति नाही; ऐसैं जाननां । इहां कोई पूछ-मुनिकै स्नानका त्याग कह्या अर हम ऐसैं भी सुनै हैं जो चांडाल आदिका स्पर्श होय तौ दंडस्नान करै है ? ताका समाधान जो-जैसैं गृहस्थ स्नान करै है तैसैं स्नान करनेका त्याग हैं जाते यामैं हिंसाकी बहुलता है, बहुरि मुनिकै ऐसा स्नान है जोकमंडलुमैं प्रासुकजल रहै ताकरि मंत्र पढ़ि मस्तकपरि धारामात्र देहैं अर तिसदिन उपवास करैं हैं सो ऐसा स्नान है सो नाममात्र स्नान है; इहां मंत्र अर तपस्नान प्रधान है जलस्नान प्रधान नाही, ऐसें जाननां ॥९८॥ ___ आनें कहै है जो आत्मस्वभावः विपरीत बाह्य क्रियाकर्म है सो कहा करै ? मोक्षमार्गमैं तो कल भी कार्य न करै है;गाथा-किं काहिदि बहिकम्मं किं काहिदि वहुविहं च खवणं तु
किं काहिदि आदावं आदसहावस्स विवरीदो ॥ ९९ ॥ संस्कृत-किं करिष्यति बहिः कर्म किं करिष्यति बहुविधं च
क्षमणं तु । किं करिष्यति आतापः आत्मस्वभावात् विपरीतः ९९ अर्थ-आत्मस्वभावतें विपरीत प्रतिकूल बाह्यकर्म जो क्रियाकांड सो कहा करेगा ? कळू मोक्षका कार्य तौ किंचिन्मात्रभी नांही करैगा, बहुरि बहुत अनेक प्रकार क्षमण कहिये उपवासादि बाह्यतप सो भी कहा करैगा ? कछू भी नांही करैगा, बहुरि आतापनयोगआदि कायक्लेश सो कहा करैगा ? कछू भी नांही करैगा ॥ ___ भावार्थ-बाह्य क्रियाकर्म शरीराश्रित है अर शरीर जड है आत्मा चेतन है, तहां जडकी क्रिया तौ चेतनळू कळू फल करै है नांही जैसा चेतनाका भाव जेती क्रियामै मिलै है ताका फल चेतनकू लागै है । तहां चेतनका अशुभ उपयोग मिलै तब तो अशुभकर्म बंधै, अर शुभयोग मिलै तब शुभकर्म बंधै, अर जब शुभ अशुभ दोऊ” रहित उपयोग
भ० व० २३