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________________ अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका । ३४३ I आपा मानैं तिनि पर्यायनिविपैं लीन है तब मिथ्यादृष्टी है अज्ञानी है, याका फल संसार है ताकूंं भोगवै है । बहुरि जब जिनमतके प्रसादकरि जीव अजीव पदार्थनिका ज्ञान होय तब आपा परका भेद जानि ज्ञानी होय तब ऐसैं जानैं जो - मैं शुद्धज्ञानदर्शनमयी चेतनास्वरूपहूं अन्य मेरा किछू भी नाही, तब यह आत्मा आपहीविषै आपही करि आपहीकै अर्थि लीन होय तत्र निश्चयसम्यक् चारित्रस्वरूप होय आपहीकूं ध्यावै, तबही सम्यग्ज्ञानी है याका फल निर्वाण है; ऐसैं जाननां ॥ ८३ ॥ आगैं इसही अर्थकूं दृढ करते संते कहैं हैं ; गाथा - पुरिसायारो अप्पा जोई वरणाणदंसणसमग्गो । जो झायदि सो जोई पावहरो हवदि णिछंदो ॥ ८४ ॥ संस्कृत - पुरुषाकार आत्मा योगी वरज्ञानदर्शनसमग्रः । यः ध्यायति सः योगी पापहरः भवति निर्द्वन्द्वः ॥ ८४ ॥ अर्थ — यह आत्मा ध्यानकै योग्य कैसा है - पुरुषाकार है, बहुरि योगी है मन वचन कायके योगनिका जाकै निरोध है सर्वाग सुनिश्चल है, बहुरि वर कहिये श्रेष्ठ सम्यक्रूप ज्ञान अर दर्शनकरि समग्र है परिपूर्ण है केवलज्ञानदर्शन जाकै पाइये है, ऐसा आत्माकूं जो योगी ध्यानी मुनि ध्यावै है सो मुनि पापका हरनेवाला है अर निर्द्वन्द्व है रागद्वेष आदि विकल्पनिकरि रहित है || भावार्थ — जो अरहंतरूप शुद्ध आत्माकं ध्यावै है ताका पूर्व कर्मका नाश होय है अर वर्त्तमान मैं रागद्वेषरहित होय है तब आगामी कर्मकूं नांही वांधै है ॥ ८४ ॥ आगे कहैं है जो ऐसें मुनिनिकूं प्रवर्त्तनां कह्या । अब श्रावकनिकूं प्रवर्त्तने के अर्थ कहिये है; -
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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