________________
३३२
पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
अर्थ—जेरौं यह मनुष्य इन्द्रियनिके विषयनिविर्षे प्रवत्र्ते है तेरौं आत्माकू नांही जानैं है तातें योगी ध्यानी मुनि है सो विषयनिविर्षे विरक्त है चित्त जाका ऐसा भया संता आत्माकू जानें है ॥ ___ भावार्थ-जीवका स्वभावकै उपयोगकी ऐसी स्वच्छता है जो जिस ज्ञेय पदार्थसूं उपयुक्त होय तैसाही हो जाय है, ता. आचार्य कहै हैं जो-जेविषयनिमैं चित्त रहै तेरौं तिनिरूप रहै है आत्माका अनुभव नाही होय; तारौं योगी मुनि ऐसा विचारि विषयनितें विरक्त होय आत्मामैं उपयोग लगावै तब आत्माकू जानै अनुभवै तातै विषयनितें विरक्त होना यह उपदेश है ॥६६॥ ___ आगैं इसही अर्थ• दृढ कर है जो आत्माकू जानि करिभी भावना बिना संसारहीमैं रहै है;गाथा-अप्पा णाऊण णरा केई सब्भावभावपन्भट्टा ।
हिंडंति चाउरंगं विसयेसु विमोहिया मूढा ॥६७॥ संस्कृत-आत्मानं ज्ञात्वा नराः केचित् सद्भावभावप्रभ्रष्टाः ।
हिण्डन्ते चातुरंगं विषयेषु विमोहिताः मूढाः ॥६७।। अर्थ—केई मनुष्य आत्माकू जानिकरिभी अपने स्वभावकी भावनातै अत्यंत भ्रष्ट भये विषयनिविर्षे मोहित होय करि अज्ञानी मूर्ख च्यार गतिरूप संसारविर्षे भ्रमै है ॥ ६७ ॥ __ भावार्थ-पहलें कह्याथा जो आत्माकू जाननां भावनां विषयनित विरक्त होनां ये उत्तरोत्तर दुर्लभ पाइये है, तहां विषयनिमैं लग्या प्रथम तौ आत्माकू जानें नांही ऐसे कह्या, अब इहां ऐसे कह्या जो आत्माकू जानिकरिभी विषयनिकै वशीभूत भया भावना न करै तौ संसारहीमैं भ्रमै है, तातै आत्माकू जानि विषयनितें विरक्त होनां यह उपदेश है॥६७ ॥