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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित--
सुखहीमैं भावै दुःख आये व्याकुल होय तब ज्ञानभावना न रहै; ताते यह उपदेश है ॥ ६२ ॥ ___ आगै कहै है जो-आहार आसन निद्रा इनिळू जीतिकरि आत्माकू ध्यावना;गाथा-आहारासणणिद्दाजयं च काऊण जिणवरमएण ।
झायव्वो णियअप्पा णाऊणं गुरुपसाएण ॥६३॥ संस्कृत-आहारासननिद्राजयं च कृत्वा जिनवरमतेन ।
ध्यातव्यः निजात्मा ज्ञात्वा गुरुप्रसादेन ॥६३॥ अर्थ-आहार आसन निद्रा इनिळू जीतिकरि अर जिनवरके मत करि गुरुके प्रसादकरि जानि निज आत्माकू घ्यावणां ॥
भावार्थ-आहार आसन निद्राकू जीतिकरि आत्माकू घ्यावनां तो अन्यमतीभी कहैं हैं परन्तु तिनिकै यथार्थ विधान नाही तातैं आचार्य कहै है कि जैसैं जिनमतमैं कह्या है तिस विधानक गुरुनिके प्रसादकरि जांनि अर ध्याये सफल है, जैसे जैनसिद्धान्तमैं आत्माका स्वरूप तथा ध्यानका स्वरूप अर आहार आसन निद्रा इनिके जीतनेका विधान कह्या है तैसें जांनिकरि तिनिमैं प्रवर्त्तनां ॥ ६३ ॥
आगैं आत्माकू ध्यावनां सो आत्मा कैसा है, सो कहै है,गाथा-अप्पा चरित्तवंतो दंसणणाणेण संजुदो अप्पा ।
सो झायबो णिचं गाऊणं गुरुपसाएण ॥६४॥ संस्कृत-आत्मा चारित्रवान् दर्शनज्ञानेन संयुतः आत्मा ।
सः ध्यातव्यः नित्यं ज्ञात्वा गुरुप्रसादेन ॥६४॥ अर्थ-आत्मा है सो चारित्रवान् है बहुरि दर्शन ज्ञानकरि सहित है ऐसा आत्मा गुरुके प्रसादकरि जानि ध्यावनां ॥