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________________ अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचीनका। ३२७ संस्कृत-अचेतनेपि चेतनं यः मन्यते सः भवति अज्ञानी । सः पुनः ज्ञानी भणितः यः मन्यते चेतने चेतनम् ५८ ___ अर्थ—जो अचेतनवि चेतनकू मानें है सो अज्ञानी है बहुरि जो. चेतनविर्षे ही चेतनकू मान है सो ज्ञानी कह्या है ॥ भावार्थ—संख्यमती ऐसैं कहै है जो पुरुष तौ उदासीन चेतनास्वरूप नित्य है अर यह ज्ञान है सो प्रधान धर्म है, ताके मतमैं सो पुरुषकू उदासीन चेतनास्वरूप मान्यां सो ज्ञान विना तौ जडही भया, ज्ञानविना चेतन काहेका ? बहुरि ज्ञानकू प्रधानका धर्म मान्या अर प्रधान• जड मान्यां तब अचेतनविर्षे चेतनामानी तब अज्ञानीही भया । बहुरि नैयायिक वैशेषिकमती गुण गुणीकै सर्वथा भेद मानें है तब चेतना गुण जीवतै न्यारा मान्यां तब जीव तो अचेतनही रह्या ऐसैं अचेतनविर्षे चेतनपणां मान्या । बहुरि भूतवादी चार्वाक भूत पृथ्वी आदिक” चेतनता उपजी माने है तहां भूत तौ जड है तिनिविर्षे चेतनता कैसे उपजै । इत्यादिक अन्य भी केई मानें हैं ते सारे अज्ञानी हैं तातें चेतनविर्षे ही चेतन मानै सो ज्ञानी है, यह जिनमत है ॥ ५८ ॥ __ आगैं कहै है जो तपरहित तौ ज्ञान अर ज्ञानरहित तप ये दोऊ ही अकार्य हैं दोऊ संयुक्त भयेही निर्वाण है;गाथा-तवरहियं जणाणं णाणविजुत्तो तवो वि अकयत्थो । तम्हा णाणतवेणं संजुत्तो लहइ णिव्वाणं ॥ ५९॥ संस्कृत-तपोरहितं यत् ज्ञानं ज्ञानवियुक्तं तपः अपि अकृतार्थम् । तस्मात् ज्ञानतपसा संयुक्तः लभते निर्वाणम् ॥ ५९॥ अर्थ-जो ज्ञान तपरहित है बहुरि जो तप है सो भी ज्ञानरहित है तौ दोऊही अकार्य हैं ता” ज्ञान तपकरि संयुक्त है सो निर्वाणकू पावै है।।
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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