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________________ अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका । ३२५ चारित्र मोहका उदय होय तौ तिस रागकू बंधका कारण जांनि रोगवत् छोड्या चाहै तौ ज्ञानी है ही, अर इस रागभावकू भला जांणि आप करै तौ अज्ञानी है आत्माका स्वभाव सर्व रागादिकतै रहित है ताकू या न जान्यां; ऐसैं रागभावकू मोक्षका कारण अर भला जांनि करै ताका निषेध जाननां ॥ ५५ ॥ आज कहै है जो-कर्मही मात्र सिद्धि मानै है तानें आत्मस्वभाव जान्यां नांही सो अज्ञानी है जिनमत प्रतिकूल है;गाथा—जो कम्मजादमइओ सहावणाणस्स खंडदूसयरो । सो तेण दु अण्णाणी जिणसासणदूसगो भणिदो॥५६॥ संस्कृत-यः कर्मजातमतिकः स्वभावज्ञानस्य खंडदूषणकरः । सः तेन तु अज्ञानी जिनशासनदूषकः भणितः॥५६॥ अर्थ-जो कर्महीकै विर्षे उपजै है वुद्धि जाकै ऐसा पुरुष है सो स्वभावज्ञान जो केवलज्ञान ताकू खंडरूप दूषणका करनेवाला है, इंद्रियज्ञान खंडखंडरूप है अपनें अपने विषयकू जानैं है तिसमात्रही ज्ञानकू मान है तिस कारणकरि ऐसैं माननेवाला अज्ञानी है जिनमतका दूषण करै है॥ __ भावार्थ-भीमांसकमती कर्मवादी हैं सर्वज्ञकू मा. नाही, इन्द्रियज्ञानमात्रही ज्ञानकू मानें हैं, केवलज्ञानकू मानें नाही, ताका इहां निषेध किया है जातें जिनमतमैं आत्माका स्वभाव सर्वका जाननेवाला केवलज्ञानस्वरूप कह्या है सो कर्मके निमित्ततें आच्छादित होय इंद्रियनिकै द्वारै क्षयोपशमके निमित्तौं खंडरूप भया खंड खंड विषयनिकू जानें है, कर्मका नाश भये केवलज्ञान प्रगट होय तब आत्मा सर्वज्ञ होय है ऐसैं मीमांसक मती मानें नांही सो अज्ञानी है जिनमततै
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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