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________________ ३१२ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित - आगैं इसही अर्थकूं अन्य प्रकार करि कहै है, गाथा - तच्चरुई सम्मत्तं तच्चग्गहणं च हवइ सण्णाणं । चारितं परिहारो पर्यंपियं जिणवरिंदेहिं ॥ ३८ ॥ संस्कृत - तत्वरुचिः सम्यक्त्वं तत्वग्रहणं च भवति संज्ञानम् । चारित्रं परिहारः प्रजल्पितं जिनवरेन्द्रैः || ३८ ॥ अर्थ—तत्वरुचि है सो सम्यक्त्व है, तत्त्वका ग्रहण है सो सम्यग्ज्ञान "है, परिहार है सो चारित्र है, ऐसें जिनवरेन्द्र तीर्थंकर सर्वज्ञदेव का है ॥ भावार्थ - जीव अजीव आस्रव बंध संवर निर्जरा बंध मोक्ष इनि तत्वनिका श्रद्धान रुचि प्रतीति सो सम्यग्दर्शन है, बहुरि तिनिहीका जाननां सो सम्यग्ज्ञान है, बहुरि परद्रव्यका परिहार तिस संबंधी क्रियाकी निवृत्ति सो चारित्र है: ऐसें जिनेश्वरदेवनैं कया है, इनिकं निश्चय व्यवहार नय करि आगमकै अनुसार साधनां ॥ ३८ ॥ आगें सम्यग्दर्शनकूं प्रधानकरि कहै है; - गाथा - दंसणसुद्धो सुद्धो दंसणसुद्धो लहेइ णिव्वाणं । दंसणविहीणपुरिसोन लहड़ तं इच्छियं लाहं ॥ ३९ ॥ संस्कृत - दर्शनशुद्धः शुद्धः दर्शनशुद्धः लभते निर्वाणम् । दर्शन विहीन पुरुषः न लभते तं इष्टं लाभम् ||३९|| अर्थ — जो पुरुष दर्शनकरि शुद्ध है सो ही शुद्ध है जातैं दर्शन शुद्ध है सो निर्वाणकूं पावै है, बहुरि जो पुरुष सम्यग्दर्शनकरि रहित है सो पुरुष ईप्सित लाभ जो मोक्ष ताहि न पात्रै है | भावार्थ — लोक मैं प्रसिद्ध है जो कोई पुरुष कछु वस्तु चाहै ताकी रुचि प्रतीति श्रद्धा न होय तौ ताकी प्राप्ति न होय यातैं सम्यग्दर्शनही निर्वाणकी प्राप्ति विषै प्रधान है ॥ ३९ ॥
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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