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अष्टपाहुड में मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका । ३०५
भावार्थ-मुनि आत्माकं ध्यावै सो ऐसा भया ध्यावै -- प्रथम तौ क्रोध मान माया लोभ ये कषाय हैं इनि सर्वनिकूं छोडे, बहुरि गारवकूं छोडै, बहुरि मद जाति आदिका भेद आठ प्रकार है ताकूं छोडै बहुरि राग द्वेषकूं छोडै बहुरि लोकव्यवहार जो संघमैं रहनें मैं परस्पर विनयाचार वैयावृत्त्य धर्मोपदेश पढना पढावनां है ताकूं भी छोडे व्यानविषै तिष्ठै ऐसै आत्माकूं ध्यावै ॥
इहां कोई पूछै – सर्व कषायका छोडनां कया है ता मैं तौ सर्व गाव मदादिक आय गये न्यारे काहे कूं कहे ? ताका समाधान ऐसें जो -- सर्व कषायनिमैं गर्भित हैं तौऊ विशेष जनावनेकूं न्यारे कहे हैं तहां कषायकी प्रवृत्ति तौ ऐसे है जो आपके अनिष्ट होय तासूं क्रोध करै अन्यकूं नीचा मांनि मान करै काहू कार्यनिमित्त कपट करै आहारदिविषै लोभ करै बहुरि यह गार है सो - रस, ऋद्धि, सात, ऐसे तीन प्रकार है सो ये यद्यपि मानकषाय मैं. गर्भित है तौऊ प्रमादकी बहुलता इनिमैं है तार्तें न्यारे कहे है । बहुरि मद जाति लाभ कुल रूप तप बल विद्या ऐश्वर्य इनिका होय है सो न करै । बहुरि राग द्वेष प्रीति अप्रीतिकूं कहिये है, काहूसूं प्रीति करनां काहूसूं अप्रीति करनां, ऐसैं लक्षणके विशेष भेद करि कह्या । बहुरि मोह नाम परसूं ममत्व भावका है, संसारका ममत्व तौ मुनिकै है ही नांही अर धर्मानुरागतैं शिष्य आदिविषै ममत्वका व्यवहार है सो ये भी छोडै । ऐसैं भेदविवक्षाकरि न्यारे कहे हैं, ये ध्यानके घातक भाव हैं इनिकूं छोडे विना ध्यान होय नांही जातैं जैसें ध्यान होय तैसें करै ॥
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२७ ॥
आ याही विशेष करि कहै है, -
गाथा - मिच्छत्तं अण्णाणं पात्रं पुण्गं चएवि तिविहेण । मोणव्वएण जोई जोयत्थो जोयए अप्पा ॥ २८ ॥
अ० व० २०