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२९० पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचितगाथा-जं जाणिऊण जोई जोअत्थो जोइऊण अणवरयं ।
अव्वावाहमणंतं अणोवमं लहइ णिव्वाणं ॥३॥ संस्कृत—यत् ज्ञात्वा योगी योगस्थः दृष्ट्वा अनवरतम् ।
अव्याबाधमनंतं अनुपमं लभते निर्वाणम् ॥३॥ अर्थ--आज कहेंगे जो परमात्मा ताकू जांनिकरि योगी जो मुनि सो योग जो ध्यान ताविर्षे तिष्ठया हूवा निरन्तर तिस परमात्माकू अनुभवगोचरकरि निर्वाणकू प्राप्त होय है, कैसा है निर्वाण-अव्याबाध है जहां काहू प्रकारकी बाधा नाही है, बहुरि कैसा है--अनंत है जाका नाश नांही है, बहुरि कैसा है-अनुपम है जाकू काहूकी उपमा लागै नाही ॥ __ भावार्थ-आचार्य कहै है ऐसे परमात्माकू आगैं कहियेगा तिसकू ध्यानविर्षे मुनि निरन्तर अनुभवन करि अर केवलज्ञान उपजाय निर्वाणकू पावै । इहां यह तात्पर्य है-जो परमात्माका ध्यानतें मोक्ष होय है ॥३॥
आगें परमात्मा कैसा है-ऐसँ जनावनेंकै अर्थि आत्माकू तीन प्रकारकरि दिखावै है;गाथा-तिपयारो सो अप्पा परमंतरवाहिरो हु देहीणं ।
तत्थ परो झाइज्जइ अंतोवारण चयहि बहिरप्पा ॥४॥ संस्कृत-त्रिप्रकारः स आत्मा परमन्तः बहिः स्फुटं देहिनाम् ।
तत्र परं ध्यायते अन्तरुपायेन त्यज बहिरात्मानं ॥४॥ अर्थ-सो आत्मा प्राणीनिकै तीन प्रकार है-अंतरात्मा, बहिरात्मा, परमात्मा, ऐसैं । तहां अन्तरात्माके उपायकरि बहिरात्माकू छोडिकरि परमात्माकू ध्यायजे ॥
१-मुद्रित संस्कृत प्रतिमें 'हु हेऊणं' ऐसा पाठ है जिसकी संस्कृत 'तु हित्वा' की है।