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________________ अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका ! २८५. I 1 भाव कहिये है । बहुरि कर्मके निमित्ततैं राग द्वेष मोहादिक विभावरूप परिणमनां सो अशुद्धपरणति है याकूं अशुद्ध भाव कहिये । तहां कर्मका निमित्त अनादितैं है तातैं अशुद्धभावरूप अनादिहीतें परिणमै है, तिस भावतैं शुभ अशुभ कर्मका बंध होय है तिस बंधके उदयतें फेरि अशुद्धभावरूप परिणमै है अनादिसंतान चल्या आवै है । तहां जब इष्टदेवतादिककी भक्ति जीवनिकी दया उपकार मंदकषायरूप परिणमै तब तौ शुभकर्मका बंध करे है, ताके निमित्ततैं देवादिक पर्याय पाय किछू सुखी होय है । बहुरि तत्र विषय कषाय तीव्र परिणामरूप परिणमै तब पापका बंध करे है, ताके उदयतें नरकादिक पर्याय पाय दुःखी होयं है । ऐसें संसार मैं अशुद्धभावतें अनादितैं यहु जीव भ्रम है, बहुरि जब कोई काल ऐसा आवै जामैं जिनेश्वरदेव सर्वज्ञ वीतरागका उपदेशकी प्राप्ति होय अर ताका श्रद्धान रुचि प्रतीति आचरण करे तब अपना अर परका भेदज्ञानकरि शुद्ध अशुद्ध भावका स्वरूप जांणि अपनां हित अहितका श्रद्धान रुचि प्रतीति आचरण होय तब शुद्धदर्शनज्ञानमयी शुद्ध चेतनाका परिणमनकूं तौ हित जानैं ताका फल संसारकी निवृत्ति है ताकूं जानें, अर अशुद्धभाव का फल संसार है ताकूं जानें, तत्र शुद्धभावका अंगीकार अर अशुद्ध भावका त्यागका उपाय करै । तहां उपायका स्वरूप जैसा सर्वज्ञ वीतराग के आगम मैं कया है तैसें करे— तहां ताका स्वरूप निःश्रयव्यवहारात्मक सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रस्वरूप मोक्षमार्ग कया है । तहां निश्चय तौ शुद्ध स्वरूपका श्रद्धान ज्ञान चारित्रकूं कया है अर व्यवहार जिनदेव सर्वज्ञ वीतराग तथा ताके वचन तथा तिनि वचननिकै अनुसार प्रवर्त्तनेवाले मुनि श्रावक तिनिकी भक्ति वंदनां विनय वैयावृत्त्य करै, सो है, जातैं ये मोक्षमार्ग मैं प्रवर्त्तावनेकूं उपकारी हैं उपकारीका माननां न्याय है उपकार
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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