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________________ अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका । २५३. भावार्थ — जे मुनि द्रव्यलिंग तो धारैं हैं परन्तु परमार्थ सुखका अनुभव जिनिकै न भया तातैं इस लोक परलोकविषै इंन्द्रियनिका सुखहीकूं चाहैं हैं तपश्चरणादिक भी याही अभिलाषतैं करैं हैं तिनिकै धर्म शुक्लध्यान काहे तैं होय ? न होय, बहुरि जिनिमैं परमार्थसुखका आस्वाद लिया तिनिकूं इंन्द्रियसुख दुःख भास्या, तातैं परमार्थ सुखका उपाय धर्म शुक्लध्यान है ताकूं करि संसारका अभाव करैं हैं तातैं भावलिंगी होय ध्यानका अभ्यास करनां ॥ १२२ ॥ आगैं इसही अर्थं दृष्टान्त करि दृढ करे है, - गाथा --जह दीवो गन्भहरे मारुयवाहाविवज्जिओ जलइ । तह रायानिलरहिओ झाणपईवो वि पज्जलइ ॥ १२३॥ संस्कृत - यथा दीपः गर्भगृहे मारुतबाधाविवर्जितः ज्वलति । तथा रागानिलरहितः ध्यानप्रदीपः अपि प्रज्वलति । अर्थ -- जैसैं दीपक है सो गर्भगृह कहिये जहां पवनका संचार नही ऐसा मध्यका घर ताविषै पवनकी बाधाकरि रहित निश्चल भया उज्ज्वलै है उद्यत करे है तैसे अंतरंग मनविषै रागरूपी पवनकरि रहित ध्यानरूपी दीपक भी प्रज्वलै है एकाग्र होय ठहरै है आत्मरूपकूं प्रकाशै है | भावार्थ — पूर्वै कह्याथा जो इन्द्रियसुखकरि व्याकुल हैं तिनिकै शुभ'व्यान न होय है ताका यह दीपकका दृष्टान्त है— जहां इन्द्रियनिके सुखविषै जो राग सोही भई पवन सो विद्यमान है तिनिकै ध्यानरूपी दीपक कैसैं निर्वाध उद्योत करै ? न करै, अर जिनिकै यह रागरूप पवन बाधा न करै तिनिकै ध्यानरूप दीपक निश्चल ठहरे है ॥ १२३ ॥ आगैं कहै है- - जो ध्यानविषै परमार्थ ध्येय शुद्ध आत्माका स्वरूप है तिस्वरूपरूपके आराधनेविषै नायक प्रधान पंच परमेष्ठी हैं तिनिकूं ध्यावनां, यह उपदेश करै है; -
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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