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________________ २५० पंडित जयचंद्रजी छाबड़ा विरचित wrirmwaranana गंधमाल्यका ग्रहण ३ शयनासन सुंदरका ग्रहण ४ भूषणका मंडन ५ गीतवादित्रका प्रसंग ६ धनका संप्रयोजन ७ कुशील का संसर्ग ८ राजसेवा ९ रात्रिसंचरण १० थे दश शील विराधना है। बहुरि तिनिकू आलोचनाके दश दोष हैं जो गुरुनि पासि लगे दंपनिकी आलोचना करे सो सरल होय न करै कळू शल्य राखै ताके दश भेद किये हैं तिनितें गुणें आठ लाख चालीस हजार होय है। बहुरि आलोचनाकू आदि देय प्रायश्चित्तके भेद है तिनितें गुणें चौरासी ठाव होय है । सो सर्व दोषनिके भेद है इनिका अभावतें गुण है इगिकी भावना राखे चितवन अभ्यास राखै इनिकी संपूर्ण प्राप्ति होनेका उपाय राखै, ऐसैं, इनिकी भावनाका उपदेश है। आचार्य कहै है जो बारबार बहुत वचनके प्रलाप करिती कळू साध्य नाही जो कळू आमाके भावकी प्रवृत्तिके व्यवहारके भेद है तिनिळू गुण संज्ञा है तिनिको भावना राखणी बहुरि इहां एता और जाननां जो-गुणस्थान चौदह कहे है तिस परिपाटीकरि गुण दोषनिका विचार है । तहां मिथ्यात्व सासादन मिश्र इनि तीननिमैं तो विभावपरणतिही है तहां तौ गुणका विचार नाही। बहुरि अविरत देशविरत आदिमैं गुणका एकदेश आवे है, तहां अविरतमैं मिथ्यात्व अनंतानुबंधी कषायके अभावरूप गुणका एकदेश सम्यक अर तीव्र राग द्वेषका अभावरूप गुण आवै है, बहुरि देश विरतमैं कछू व्रतका एकदेश आवै है । अर प्रमत्तमैं महाव्रतरूप सामायिक चारित्रका एकदेश आवै है जातैं पापसंबंधी तो राग द्वेष तहां नाही परन्तु धर्मसंबंधी राग अर सामायिक राग द्वेषका अभावका नाम है तातें सामायिकका एकदेशही कहिये, अर इहां स्वरूपके सन्मुख होनेविर्षे क्रियाकांडके संबंध” प्रमाद है तातै प्रमत्त नाम दिया है। बहुरि अप्रमत्तविर्षे स्वरूप साधनेंविर्षे प्रमादतौ नाही परन्तु कछू स्वरूपके साधनेंका राग व्यक्त है तातें.
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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