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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित -
उपदेश अपेक्षा ते गौण हैं । ऐसैं ये शील अर उत्तरगुण स्वभाव विभाव परिणतिके भेदतैं भेदरूपकरि कहे हैं, तहां शीलकी तौ दोय प्रकार प्ररूपणा है - एकतौ स्वद्रव्य परद्रव्यके विभाग अपेक्षा है अर स्त्रीके संसर्गकी अपेक्षा है ! तहां परद्रव्यका संसर्ग मन वचन काय करि होय अर कृत कारित अनुमोदनाकरि होय सो न करणां, इनिकूं परस्पर गुणें नव भेद होंय । बहुरि आहार, भय, मैथुन, परिग्रह ये चार संज्ञा हैं इनिकरि परद्रव्यका संसर्ग होय हैं ताका न होनां यातैं नवभेदनिकूं च्यार संज्ञानि गुणें छत्तीस होंय । बहुरि पांच इंद्रियनिके निमित्ततैं विषयनिका संसर्ग होय है तिनिकी प्रवृत्तिका अभावरूप पांच इंद्रियनिकरि छत्तीसकूं गुणें एकसौ अस्सी होय हैं । बहुरि पृथ्वी, अप, तेज, वायु, प्रत्येक साधारण ये तौ एकेंद्रिय अर द्वीन्द्रिय त्रींद्रिय चतुरिंद्रिय पंचेंद्रिय ऐसें दशभेदरूप जीवनिका संसर्ग इनिकी हिंसारूप प्रवर्त्तनेंतें परिणाम विभावरूप होय हैं सो न करणां, ऐसें एकसौ अस्सी भेदानिकूं दशकरि गुणें अठरासै होय । बहुरि क्रोधादिक कषाय अर असंयम परिणामतैं परद्रव्यसंबंधी विभाव परिणाम होय हैं तिनिके अभावरूप दश लक्षण धर्म हैं तिनितैं गुणें अठारह हजार होय हैं । ऐसें परद्रव्यके संसर्गरूप कुशीलके अभावरूप शीलके अठारह हजार भेद हैं इनके पाले परम ब्रह्मचर्य होय हैं, ब्रह्म कहिये आत्मा ताविषै प्रवर्त्तनां रमनां ताकूं ब्रह्मचर्य कहिये है।
बहुरि स्त्रीके संसर्गकी अपेक्षा ऐसें है, स्त्री दोय प्रकार, तहां अचेतन स्त्री तौ काष्ठ पाषाण लेप कहिये चित्राम ये तान मन अर काय इन दोकर संसर्ग होय, इहां वचन नांही तातें दोयकरि गुणों छह होय । बहुरि कृतकारित अनुमोदनाकरि गुणें अठारह होय । बहुरि पांच इन्द्रियनिक गुणें निव्वै होय । बहुरि द्रव्य भावकरि गुणें एक
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