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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
संस्कृत-आहारभयपरिग्रहमैथुनसंज्ञामिः मोहितः असि त्वम् ।
भ्रमितः संसारवने अनादिकालं अनात्मवशः ॥११२॥ ___ अर्थ-हे मुने ! तू आहार भय मैथुन परिग्रह ये च्यारि संज्ञा तिनिकरि मोहित भया अनादिकालतें लगाय पराधीन भया संता संसाररूप वनमैं भ्रम्या ॥ ___ भावार्थ-संज्ञा नाम वांछाका चेत रहनेंका है सो आहारकी दिशि भयकी दिशि मैथुनकी दिशि परिग्रहकी दिशि प्राणीकै निरंतर चेत रहै है, यह जन्मान्तरमैं चली जाय है जन्म लेतेही तत्काल उघडै है, याहीके निमित्त कर्मनिका बंध करि संसारखनमैं भ्रमैं है, तातें मुनिनिकू यह । उपदेश है जो अब इनि संज्ञानिका अभाव करौ ॥ ११२ ॥ __ आगें कहै है जो बाह्य उत्तरगुणकी प्रवृत्तिभी भाव शुद्ध करि करणीं;गाथा-बाहिरसयणत्तावणतरुमूलाईणि उत्तरगुणाणि ।
पालहि भावविसुद्धो पूयालामण ईहतो ॥ ११३॥ संस्कृत-बहिःशयनातापनतरुमूलादीन् उत्तरगुमान् ।
पालय भावविशुद्धः पूजालाभं न ईहमानः ॥११३॥ अर्थ-हे मुनिवर ! तू भावकरि विशुद्ध भया संता पूजालाभादिककू न चाहता संता बाह्य शयन आतापन वृक्षमूलयोग धारनां इत्यादिक उत्तरगुण हैं तिनिकू पालि ॥ ___ भावार्थ-शीतकाल मैं बाह्य चौडै सोवनां बैठना, ग्रीष्मकालमैं पर्वतके शिखर सूर्यसन्मुख आतापनयोग धरना, वर्षाकालमैं वृक्षकै मूल योग धरनां जहां बूंद वृक्षपार पडै पीछे भेली होय शरीरपार पडै तहां किछू १-संस्कृत मुद्रिक प्रतिमें “नईहतो" ऐसा एक पद किया है जिसकी संस्कृत 'अनीहमानः' ऐसी की है ।