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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका।
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इत्यादिकविर्षे आवास कहिये वसनां निरर्थक है, बहुीरे ध्यान करना आसनकरि मनकू थांभनां अध्ययन कहिये पढ़ना ये सब निरर्थक है ॥
भावार्थ-बाह्य क्रियाका फल आत्मज्ञानसहित होय तौ सफल होय नांतरि सर्व निरर्थक है, पुण्यका फल होय तौऊ संसारकाही कारण है मोक्षफल नाही ॥ ८९ ॥ .. आगें उपदेश करै है जो-भावशुद्धकै अर्थि इन्द्रियादिक वशि करी भावशुद्धविनां बाह्य भेषका आडंबर मति करौ;-- . गाथा-भंजसु इंदियसेणं भंजसु मणमकडं पयत्तेण ।
मा जणरंजणकरणं वाहिरवयवेस तं कुणसु ॥१०॥ संस्कृत-भंग्धि इन्द्रियसेना भंग्धि मनोमर्कटं प्रयत्नेन ।
मा जनरंजनकरणं बहिर्वतवेष ! त्वंकार्षीः ॥९॥ अर्थ-हे मुने ! तू इंद्रियकी सेना है ताहि भंजनकरि विषयनिमें रमावैमति; बहुरि मनरूप बंदर है ताहि प्रयत्नकरि बड़ा उद्यमकरि भंजनकरि वशीभूतकरि,बहुरि वाह्यव्रतका भेष लोकका रंजन करनेवाला मति धारण करै।
भावार्थ-बाह्य मुनिका भेष लोकका रंजन करनेवाला है तातें यह उपदेश है, लोकरंजनौं कछू परमार्थ सिद्धि नांही तारौं इन्द्रिय मनके वश करनेकू बाह्य यत्न करै तौ श्रेष्ठ है अर इन्द्रिय मन वशि किये विना केवल लोकरंजनमात्र भेष धारनेमैं कछू परमार्थसिद्धि है नांही ॥९०॥ ___ आगै फेरि उपदेश करै है;गाथा—णवणोकसायवग्गं मिच्छत्तं चयसु भावसुद्धीए ।
चेइयपवयणगुरुणं करेहि भत्तिं जिणाणाएः ॥९१॥ संस्कृत-नवनोकषायवर्ग मिथ्यात्वं त्यज भावशुद्धया ।
चैत्यप्रवचनगुरूणां कुरु भक्तिं जिनाज्ञया ॥९१॥ अ.व. १५