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________________ २०४ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित अर्थ - - भावलिंगी विचार है जो ज्ञान दर्शन जाका लक्षण ऐसा अर शाश्वता नित्य ऐसा आत्मा है सोही एक मेरा है बाकी भाव हैं ते मोतैं बाह्य हैं ते सर्वही संयोगस्वरूप हैं परद्रव्य हैं | भावार्थ - ज्ञानदर्शनस्वरूप नित्य एक आत्मा है सो तौ मेरा रूप है एक स्वरूप है अर अन्य परद्रव्य हैं ते मोतैं बाह्य हैं सर्व संयोगस्वरूप है, भिन्न हैं, यह भावना भावलिंगी मुनिकै है ॥ ४९ ॥ आगे कहै है जो मोक्ष चाहे है सो ऐसें आत्मा की भावना करै, गाथा - भावेह भावसुद्धं अप्पा सुविसुद्धणिम्मलं चेव । लहु चउगह चऊणं जड़ इच्छसि सासयं सुक्ख || ६० संस्कृत - भावय भावशुद्धं आत्मानं सुविशुद्धनिर्मलं चैव । लघु चतुर्गति च्युत्वा यदि इच्छसि शाश्वतं सौख्यम् ।। अर्थ — हे मुनिजन हौ ! जो च्यारगतिरूप संसार छुटिकरि शीघ्र शाश्वता सुखरूप मोक्ष तुम चाहोहौ तौ भावकरि शुद्ध जैसैं होय तैसें अतिशयकार विशुद्ध निर्मल आत्माकूं भावौ ॥ भावार्थ — जो संसार निवृत्तिकरि मोक्ष चाहो हौ तौ द्रव्यकर्म भावकर्म नौकर्मतैं रहित शुद्ध आत्माकूं भावौ ऐसा उपदेश है ॥ ६० ॥ आगे कहै है जो आत्माकं भावै सो याका स्वभावकूं जाणि भावै सो मोक्ष पावै, - ――――― गाथा -- जो जीवो भावतो जीवसहावं सुभावसंजुत्तो । सो जरमरणविणासं कुणइ फुडं लहड़ णिव्वाणं ॥ ६१॥ संस्कृत - - यः जीवः भावयन् जीवस्वभावं सुभावसंयुक्तः । सः जरामरणविनाशं करोति स्फुटं लभते निर्वाणम् ॥
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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