SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 242
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका । १९९ संस्कृत — केवलिजिनप्रज्ञतं एकादशांगं सकलश्रुतज्ञानम् । पठितः अभव्यसेनः न भावश्रमणत्वं प्राप्तः ॥ ५२ ॥ अर्थ—अभव्यसेननामा द्रव्यलिंगी मुनि है सो केवली भगवानका प्ररूप्या ग्यारह अंग पढ्या तथा ग्यारह अंगकूं पूर्ण श्रुतज्ञान भी कह जातैं एता पढ्याकूं अर्थ अपेक्षा पूर्ण श्रुत ज्ञानभी होय जाय है, तहां अभव्यसेन एता पढ्या तौऊ भावश्रमणपणांकूं प्राप्त न भया ॥ भावार्थ — इहां ऐसा आशय है जो कोई जानैगा बाह्य क्रिया मात्र तौ सिद्धि नांही अर शास्त्र के पढनेंकरि तौ सिद्धि है तौ यहभी जाननां सत्य नांही जातै शास्त्र पढनें मात्र भी सिद्धि नांही है - अभव्यसेन द्रव्यमुनिभी भया अर ग्यारह अंगभी पढ्या तौऊ जिनवचनकी प्रतीति न भई यात भावलिंग न पाया । अभव्यसेनकी कथा पुराणनिमैं प्रसिद्ध है तहां जाननी ॥ ५२ ॥ आगैं शास्त्र पढ्या विना शिवभूति मुनि तुषमाषकूं घोखताही भावकी विशुद्धिकं पाय मोक्ष पाई ताका उदाहरण कहै है; - गाथा - तुसमासं घोसंतो भावविसुद्धो महाणुभावो य । णामेण य सिवभूई केवलणाणी फुडं जाओ || ५३॥ संस्कृत - तुषमाषं घोषयन् भावविशुद्धः महानुभावश्च । नाम्ना च शिवभूतिः केवलज्ञानी स्फुटं जातः ॥ ५३॥ अर्थ — आचार्य कहै है जो - शिवभूति मुनि है सो शास्त्र पढ्या तुष माष ऐसा शब्दकूं घोखता संता भावकरि विशुद्धता महानुभाव होयकरि केवल ज्ञान पाया यह प्रकट है ॥ भावार्थ — कोई जानैगा कि शास्त्र पढ़ेही सिद्धि है सो ऐसैं भी नांही, शिवभूति मुनि तुषमाष ऐसा शब्द मात्रही घोखता भावनिकी
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy