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________________ अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका। १९५ __ आनें कहै है जो-द्रव्यमात्रकरि लिंगी न होय, भावकरि लिंगी होय हैगाथा-भावेण होइ लिंगी णहु लिंगी होइ दव्वमित्तेण । तम्हा कुणिज भावं किं कीरइ दव्वलिंगेण ॥४८॥ संस्कृत-भावेन भवति लिंगी नहि लिंगी भवति द्रव्यमात्रेण । तस्मात् कुर्याः भावं किं क्रियते द्रव्यलिंगेन ॥४८॥ अर्थ-लिंगी होय है सो भावलिंगहीतें होय है द्रव्यलिंगकरि लिंगी नांही होय है यह प्रकट है, तातै भावलिंगही धारण करना, द्रव्य लिंगकरि कहा कीजिये ॥ ___ भावार्थ--आचार्य कहै है जो-सिवाय कहा कहिये भावलिंग विना लिंगी नामही नाही होय जाते यह प्रकट है, भाव शुद्ध न देखे तब लोकही कहै जो काहेका मुनि है कपटी है तातें द्रव्यलिंगकरि कछू साध्य नाही, भावलिंगही धारनां ॥ ४८ ॥ आर्गे याहीकू दृढ करनेकू द्रव्यलिंगधारककै उलटा उपद्रव भया, ताका उदाहरण कहै है:गाथा-दंडयणयरं सयलं डहिओ अब्भतरेण दोसेण । जिणलिंगेण वि वाहू पडिओ सो रउरवे णरये ॥४९॥ संस्कृत-दण्डकनगरं सकलं दग्ध्वा अभ्यन्तरेण दोषेण । जिनलिंगेनापि बाहुः पतितः सःरौरवे नरके ॥४९॥ अर्थ-देखो, बाहुनामा मुनि बाह्य जिनलिंगकरि सहित था तौऊ अभ्यंतरके दोषकरि समस्त दंडकनामा नगरकू दग्ध किया अर सप्तम पृथ्वीका रौरवनामा विलमैं पड्या ॥
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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