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अष्टपाहुडमें भाबपाहुडकी भाषावचनिका। १७७ आगैं कहै है जो-पर्याय थिर नाही है आयुकर्मके आधीनहै सो अनेक प्रकार क्षीण होय है,गाथा-विसवेयणरत्तक्खयभयसत्थग्गहणसंकिलेसाणं ।
आहारुस्सासाणं णिरोहणा खिज्जए आऊ ॥२५॥ हिमजलणसलिलगुरुयरपव्वयतरुरुहणपडणभंगेहिं । रसविज्जजोयधारण अणणपसंगेहि विविहेहिं ॥२६॥ इय तिरिय मणुय जम्मे सुइरं उववज्जिऊण बहुवारं ।
अवमिच्चुमहादुक्खं तिव्वं पत्तोसि तं मित्त ॥ २७ ॥ संस्कृत-विषवेदनारक्तक्षयभयशस्त्रग्रहणसंक्लेशानाम् ।
आहारोच्छासानां निरोधनात् क्षीयते आयुः ॥२५॥ हिमज्वलनसलिलगुरुतरपर्वततरुरोहणपतनभङ्गैः। रसविद्यायोगधारणानयप्रसंगैः विविधैः ॥२६॥ इति तिर्यग्मनुष्यजन्मनि सुचिरं उत्पद्य बहुवारम् ।
अपमृत्युमहादुःखं ती प्राप्तोऽसि त्वं मित्र ! ॥२७॥ अर्थ-विषभक्षण” वेदनाकी पीडाके निमित्ततें रक्त कहिये रुधिर ताका क्षयतै भय शस्त्रकरि घात संक्लेश परिणामतें आहारका तथा श्वासका निरोध”, इनि कारणनित आयुका क्षय होय है ॥
बहुरि हिम कहिये शीत पाला” अग्नि जल बड़े पर्वतके चढनेरौं पड़ने” बड़े वृक्ष परि चढ़कार पड़नेते शरीरका भंग होनेरौं बहुरि रस कहिये पारा आदिककी विद्या ताका संयोग करि धारण करै भखै तातें बहुरि अन्याय कार्य चोरी व्यभिचार आदिके निमिततैं ऐसे अनेक प्रकारके कारणनै आयुका व्युच्छेद होय कुमरण होय हैं ।
अ० व० १२