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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित -
संस्कृत - सप्तसु नरकावासेषु दारुणभीषणानि असहनीयानि । भुक्तानि सुचिरकालं दुःखानि निरंतरं सोढानि ||९|| अर्थ — हे जी ! तैं सबत नरकभूमिनिविषै नरक आवास जे विले तिनिविषै दारुण कहिये तीव्र अर भयानक अर असहनीय कहिये सहे न जाय ऐसे घणें कालपर्यन्त दुःखनिकूं निरंतरही भोग्या अर सा ॥
भावार्थ — नरककी पृथ्वी सात हैं तिनिमैं बिल बहुत हैं तिनिविषै एक सागर लगाय तेतीस सागरपर्यन्त तहां आयुह जहां आयुपर्यन्त अतितीव्र दु:ख यहू जीव अनंतकाल सहता आया है ॥ ९ ॥
आगै तिर्येचगति के दुःखनिकूं कहै है; - गाथा — खणणुत्तावणवालणवेयणविच्छेयणाणि रोहं च ।
पत्तोसि भावरहिओ तिरियगईए चिरं कालं ॥ १०॥ संस्कृत - खननोत्तापनज्वालनवेदनं विच्छेदनानिरोधं च ।
प्राप्तोऽसि भावरहितः तिर्यग्गतौ चिरं कालं ॥ १० ॥ अर्थ—हे जीव ! तैं तिर्यंचगतिविषै खनन उत्तापन ज्वलन वेदन व्युच्छेदन निरोधन इत्यादि दुःख बहुतकालपर्यंत पाये, कैसा भया संताभावरहितकरि सम्यग्दर्शन आदि भावरहित भया संता ॥
भावार्थ — या जीवनें सम्यग्दर्शनादि भाव विनां तिर्यंचगतिविर्षे चिरकाल दुःख पाये - पृथ्वी कायमैं तौ कुदाल आदि खोदनेंकरि दुःख पाये, अपकायविषै अग्नितैं तपनां ढोलनां इत्यादिकरि दुःख पाये, तेजकायविषै ज्वालनां बुझावनां आदिकरि दुःख पाये, पवनकायविर्षै भारेतैं हलका चलनां फटनां आदिकरि दुःख पाये, वनस्पतिकायविषै फाडनां
१ - मुद्रित संस्कृत प्रतिमें 'सप्तसु नरकावासे' ऐसा पाठ है ।
२- मुद्रित संस्कृत प्रतिमें 'स्वहित' ऐसा पाठ है, 'सहिय' इसकी छाया में । ३- मुद्रित संस्कृत प्रतिमें 'वेयण' इसकी संस्कृत 'व्यजन' इस प्रकार है ।