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________________ अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका। १६५ ___ आगैं कहै है—जो कोट्यां भव विौं तप करै तौऊ भाव विना सिद्धि नाही;गाथा--भावरहिओण सिज्झइ जइ वि तवं चरइ कोडिकोडीओ। जम्मंतराइ बहुसो लंबियहत्थो गलियवत्थो ॥४॥ संस्कृत-भावरहितःन सिद्धयति यद्यपि तपश्चरति कोटिकोटी। जन्मान्तराणि बहुशः लंबितहस्तः गलितवस्त्रः॥४॥ अर्थ-जो बहुत जन्मांतरताई कोडाकोडि संख्या काल ताई हस्त लंबायमानकरि वस्त्रादिक त्यागकरि तपश्चरण करै तौऊ भावरहितकै सिद्धि नांही होय है ॥ ___ भावार्थ-भावमैं मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान मिथ्याचारित्र रूप विभाव रहित सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र स्वरूप स्वभावकै विर्षे प्रवृत्ति न होय तौ कोडा कोडि भव ताई कायोत्सर्गकरि नग्न मुद्रा धारि तपश्चरण करै तौऊ मुक्तिकी प्राप्ति न होय, ऐसैं भावमैं सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र रूप भाव प्रधान है तिनिमेंभी सम्यग्दर्शन प्रधान है जातें या विनां ज्ञान चारित्र मिथ्या कहे हैं, ऐसें जाननां ॥ ४ ॥ __ आगैं इसही अर्थकू दृढ़ करै है;गाथा-परिणामम्मि असुद्धे गंथे मुश्चेइ बाहरे य जई। बाहिरगंथञ्चाओ भावविहूणस्स किं कुणइ ॥५॥ संस्कृत-परिणामे अशुद्धे ग्रंथान मुंचति बाह्यान् च यदि । बाह्यग्रंथत्यागः भावविहीनस्य किं करोति ॥५॥ अर्थ-जो मुनि होय परिणाम अशुद्ध होते बाह्य ग्रंथकू छोड़े तौ बाह्य परिग्रहका त्याग है सो भावरहित मुनिकै कहा करै ? कछूभी न करै ॥ अर्थ-जो मुनि काय परिणाम अशुद्ध हात वात प्रथक छोटे से
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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