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१३६ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित___ आगें प्राणकरि कहै हैं;गाथा-पंच वि इंदियपाणा मणवयकाएण तिण्णि वलपाणा ।
___आणप्पाणप्पाणा आउगपाणेण होतेि दह पाणा॥३५॥ संस्कृत-पंचापि इंद्रियप्राणाः मनोवचनकायैः त्रयो बलप्राणाः ।
___ आनप्राणप्राणाः आयुष्कप्राणेन भवंति दशप्राणाः॥३५॥
अर्थ-पांच तौ इंद्रिय प्राण बहुरि मन वचन कायकरि तीन बलप्राण एक श्वासोच्छास प्राण एक आयुप्राणकरि सहित दश प्राण हैं ॥ _ भावार्थ—ऐसैं दश प्राण कहे तिनिमैं तेरहैं गुणस्थान भावइंद्रिय अर भावमनका क्षयोपशमभावरूप प्रवृति नांही तिस अपेक्षा तौ कायबल वचनबल श्वासोच्छास आयु ये च्यार प्राण कहिये अर द्रव्य अपेक्षा दशौंही कहिये, ऐसे प्राणकरि अरहंतका स्थापन है ॥ ३५ ॥ ___ आण जीवस्थानकरि कहै है;गाथा--मणुयभवे पंचिंदिय जीवहाणेसु होइ चउदसमे ।
एदे गुणगणजुत्तो गुणमारूढो हवइ अरहो ॥ ३६॥ संस्कृत--मनुजभवे पंचेंद्रियः जीवस्थानेषु भवति चतुर्दशे ।
एतद्गणगणयुक्तः गुणमारूढो भवति अर्हन् ॥३६॥ अर्थ—मनुष्यभववि पंचेंद्रियनामा चौदमा जीवस्थान कहिये जीवसमास ताविर्षे इतने गुणनिके समूहकरि युक्त तेरमैं गुणस्थानकू प्राप्त अरहंत होय है ॥ ___ भावार्थ-जीवसमास चौदह कहेहैं एकेंद्रिय सूक्ष्मवादर २ वेइंद्रिय तेइंद्रिय चौइंद्रिय ऐसैं विकलत्रय ३ पंचेंद्रिय असैनी सैनी २ ऐसैं सात भये ते पर्याप्त अपर्याप्त करि चौदह भये तिनिमैं चौदहमां सैनी पंचेंद्रिय जीवस्थान अरहंतकैहैं । गाथामैं सैनीका नाम न लिया अर मनुष्यभवका