SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 171
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२८ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित भावार्थ-तत्वार्थश्रद्धानलक्षण सहित पंच महाव्रतकरि शुद्ध अर पंच इंद्रियनिके विषयनितें विरक्त इस लोक परलोक विषै विषय भोगनिकी वांछातै रहित ऐसैं निर्मल आत्माका स्वभावरूप तीर्थविर्षे स्नान किये पवित्र होय हैं ऐसी प्रेरणा करै है ॥ २६ ॥ आणु फेरि कहै है;--- गाथा-जं हिम्मलं सुधम्म सम्मत्तं संजमं तवं णाणं । - तं तित्थं जिणमग्गे हवेइ जदि संतिभावेण ॥ २७॥ संस्कृत-यत् निर्मलं सुधर्म सम्यक्त्वं संयमं तपः ज्ञानम् । - तत् तीर्थ जिनमार्गे भवति यदि शान्तभावेन ॥२७॥ अर्थ—जिनमार्गवि सो तीर्थ है जो निर्मल उत्तमक्षमादिक धर्म तथा तत्वार्थश्रद्धानलक्षण शंकादिमलरहित सम्यक्त्व तथा निर्मल इंद्रिय मनका वशकरन। षट्कायके जीवनिकी रक्षा करनां ऐसा निर्मल संयम तथा अनशन अवमौदर्य व्रतपरिसंख्यान रसपरित्याग विविक्तशय्यासन कायक्लेश ऐसा बाह्य तौ छह प्रकार बहुरि प्रायश्चित विनय वैयावृत्त्य स्वाध्याय व्युत्सर्ग ध्यान ऐसे छह प्रकार अंतरंग ऐसें बारह प्रकार निर्मल तप, बहुरि जीव अजीव आदिक पदार्थनिका यथार्थ ज्ञान ये तीर्थ हैं ये भी जो शांतभावसहित होय कषायभाव न होय तब निर्मल तीर्थ है जारौं ये क्रोधादिभावसहित होय तौ मलिनता होय निर्मलता न रहै ॥ ___ भावार्थ-जिनमार्गविर्यै ऐसा तीर्थ कह्या है लोक सागर नदीनिकू तीर्थ मानि स्नान करि पवित्र भया चाहै है सो शरीरका बाद्य मल इनितें किंचित् उतर है अर शरीरमैं धातु उपधातुरूप अन्तर्मल इनितें उतरै नांही अर ज्ञानावरण आदि कर्मरूप मल अर अज्ञान राग द्वेष मोह आदि भावकर्मरूप मल आत्माके अन्तर्मल है सो तो इनितें किंचित्मात्र
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy