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अष्टपाहुडमें चारित्रपाहुडकी भाषावचनिका । १०३
बहु एषणशुद्धि कहिये आहार शुद्ध लेना, बहुरि साधर्मीनितें विसंवाद न करनां । ये पांच भावना तृतीय महाव्रतकी हैं ॥
भावार्थ - मुनिनिकै वस्तिका मैं वसनां अर आहार लेनां ये दो प्रवृत्ति अवश्य होय तहां लोक मैं इनिहीके निमित्त अदत्तका आदान होय है, मुनि वसै सो ऐसी जायगा वसै जहां अदत्तका दोष न लागै, बहुरि आहार ऐसा ले जामैं अदत्तका दोष न लागै, तथा दोऊकी प्रवृत्ति मैं साधर्मी आदिकर्ते विसंवाद न उपजै । ऐसें ये पांच भावना कही हैं, इनके होतैं अचौर्यमहाव्रत दृढ़ रहै है ॥ ३४ ॥ आगैं ब्रह्मचर्यमहाव्रतकी भावना कहै है;
गाथा - महिलालोयणपुव्वर इसरण संसत्तवसहिविकाहाहिं । पुट्टियरसेहिं विरओ भावण पंचावि तुरियम्मि ||३५|| संस्कृत - महिलालोकन पूर्वरति स्मरण संसक्तवसति विकथाभिः । पौष्टिकरसैः विरतः भावनाः पंचापि तुर्ये ॥ ३५ ॥
अर्थ—स्त्रीनिका आलोकन कहिये रागभावसहित देखनां पूर्वै भोगका स्मरण करनां, स्त्रीनिकार संसक्त वस्तिका मैं वसनां, स्त्रीनिक कथा करना, पुष्टकारी रसका सेवन करनां इनि पांचनितैं विकार उपजै तातैं इनितैं विरक्त रहनां, ये पांच ब्रह्मचर्यमहाव्रतकी भावना हैं |
भावार्थ — कामविकारके निमित्तनितैं ब्रह्मचर्यव्रत भंग होय है सो स्त्रीनिका रागभाव देखना इत्यादिक निमित्त कहे तिनिमैं विरक्त रहनां प्रसंग न करनां यातैं ब्रह्मचर्यमहाव्रत दृढ़ रहै है ॥ ३५ ॥
आगैं पांच अपरिग्रहमहाव्रतकी भावना कहैं हैं;
गाथा - अपरिग्गह समणुण्णेसु सदपरिसरसरूवगंधेसु । रायोसाईणं परिहारो भावणा होंति ।। ३६ ।