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________________ ९० पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित आगें फेरि उपदेश करें हैं: गाथा - पव्वञ्ज संगचाए पयट्ट सुतवे सुसंजमे भावे । हो सुविसुद्ध जाणं णिमो वीरायते ॥ १६ ॥ संस्कृत - - प्रव्रज्यायां संगत्यागे प्रवर्त्तस्व सुतपसि सुसंयमे भावे । भवति सुविशुद्धध्यानं निर्मोहे वीतरागत्वे ॥ १६ ॥ अर्थ — हे भव्य ! तू संग कहिये परिग्रहका त्याग जामैं होय ऐसी दीक्षा ग्रहण करि बहुरि भलै प्रकार संयमस्वरूपभाव होतैं सम्यक् प्रकार तप विषै प्रवर्त्तन करि जातैं तेरै मोहरहित वीतरागपणा हो निर्मल धर्म शुक्ल ध्यान होय ॥ भावार्थ — निग्रंथ होय दीक्षा ले संयमभावकरि भलै प्रकार तपविषै प्रवर्त्तं तब संसारका मोह दूरि होय वीततरागपणां होय तब निर्मल धर्मध्यान शुक्लध्यान होय है ऐसें ध्यानतैं केवलज्ञान उपजाय मोक्ष प्राप्त होय है तातैं ऐसा उपदेश है ॥ १६ ॥ आमैं है है जो ये जीव अज्ञान अर मिथ्यात्वके दोष करि मिथ्यामार्गविषै प्रवर्त्ते है: गाथा - मिच्छादंसणमग्गे मलिणे अण्णाण मोहदोसेहिं । वज्झति मूढजीवा मिच्छत्ता बुद्धिउदएण ॥ १७ ॥ संस्कृत - मिथ्यादर्शनमार्गे मलिने अज्ञानमोहदोषैः । वध्यन्ते मूढजीवाः मिथ्यात्वा बुद्धयुदयेन ॥ १७ ॥ अर्थ-मूढ जीव हैं ते अज्ञान अर मोह कहिये मिथ्यात्व इनके दोष -- निकरि मलिन जो मिथ्यादर्शन कहिये कुमतका मार्ग ताविषै मिथ्यात्व अर अबुद्धि कहिये अज्ञान तिनिके उदयकार प्रवर्ते है ॥
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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