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अष्टपाहुडमें चारित्रपाहुडकी भाषावचनिका। ८१ गाथा—एवं चिय णाऊण य सव्वे मिच्छत्तदोस संकाइ ।
परिहरि सम्मत्तमला जिणमणिया तिविहजोएण॥६॥ संस्कृत-एवं चैव ज्ञात्वा च सर्वान् मिथ्यात्वदोषान् शंकादीन् ।
परिहर सम्यक्त्वमलान् जिनभणितान् त्रिविधयोगेन॥६ अर्थ—ऐसैं पूर्वोक्त प्रकार सम्यक्त्वाचरण चारित्रकू जानि अर मिथ्यात्व कर्मके उदयतै भये जे शंकादिक दोष ते सम्यक्त्वके अशुद्ध करनेवाले मल हैं ते जिनदेवनैं कहे हैं तिनिकू मन वचन कायकरि भये जे तीन प्रकार योग तिनिकरि छोडनें ॥ ___ भावार्थ- सम्यक्त्वका चरण चरित्र शंकादिदोष सम्यक्त्वके मल हैं तिनिळू त्यागे शुद्ध होय हैं यारौं तिनिका त्याग करनेका उपदेश जिनदेवनैं किया है । ते दोष कहा ? सो कहिये है; जो जिनवचन वि. वस्तुका स्वरूप कह्या ताविौं संशय करना सौ तौ शंका है, याके होतेंसप्तभयके निमित्त” स्वरूप” चिंगि जाय सो भी शंका है। बहुरि भोगनिका अभिलाष सो कांक्षा है याके होतें भोगनिकै अर्थि स्वरूप” भ्रष्ट होय है। बहुरि वस्तुका स्वरूप कहिये धर्मवि. ग्लानि करनां जुगुप्सा है याके होते धर्मात्मा पुरुषनिकै पूर्व कर्मके उदयतें बाह्य मलिनता दखि मततै चिगि जानां होय है। बहुरि देव गुरु धम तथा लौकिक कार्यनिविर्षे मूढता कहिये यथार्थ स्वरूप न जाननां सो मूढ दृष्टि है याके होते अन्य लौकिक माने जो सरागीदेव हिंसाधर्म सग्रंथगुरु तथा लोकनिनैं बिना विचारे माने जे अनेक क्रियाविशेष तिनि” विभवादिककी प्राप्तिकै आर्थि प्रवृति करने यथार्थ मतौं भ्रष्ट होय है बहुरि धर्मात्मा पुरुषनिविर्षे कर्मके उदयतें किछु दोष उपज्या दखि तिनिकी अवज्ञा करनी सो अनुपगृहन है, याके होतें धर्मर्ते
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