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अष्टपाहुडमें सूत्रपाहुडकी भाषावचनिका ।
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तब ध्यान कैसैं होय अर ध्यान विनां केवलज्ञान कैसे उपजै अर केवलज्ञानविना मोक्ष नाही, श्वेतांबरादिक मोक्ष कहैं हैं सो मिथ्या है ॥ २६ ॥ आगैं सूत्रपाहुडकूं समाप्त करे है सो सामान्यकरि सुखका कारण; कहै है;—
गाथा - गाहेण अप्पगाहा समुद्दसलिले सचेलअत्थेग |
इच्छा जाहु णियत्ता ताह णियत्ताइं सव्वदुक्खाई ||२७|| संस्कृत - ग्राह्येण अल्पग्राद्याः समुद्रसलिले स्वचेलार्थेन ।
इच्छा येम्यः निवृत्ताः तेषां निवृत्तानि सर्वदुखःखानि । अर्थ:- - जो मुनि ग्राह्य कहिये ग्रहण करनेयोग्य वस्तु आहार आदिक तिनिकरि तौ अल्पग्राह्य हैं थोरा ग्रहण करे है जैसे कोऊ पुरुष बहुत जलतैं भय जो समुद्र ता विषै अपने वस्त्र के प्रक्षालने के धोने मात्र जल ग्रहण करै तैसें बहुरि जिनि मुनिनिकै इच्छा निवृत्त भई तिनि कैं सर्व दुःख निवृत्त भये ॥
भावार्थ:— जगतमैं यह प्रसिद्ध है जो जिनकैं संतोष है ते सुखी हैं इस न्यायकरि यह सिद्ध भया जो मुनिनिकै इच्छाकी निवृत्त भई है तिनिकै संसारके विषयसंबंधी इच्छा किंचितमात्र भी नांही है देहतें भी विरक्त हैं तातैं परम संतोषी हैं, अर आहारादि किछू ग्रहण योग्य हैं तिनिमैं भी अल्पकं ग्रहण करें हैं तातैं ते परमसंतोषी हैं ते परम सुखी हैं, यह जिनसूत्रके श्रद्धानका फल है अन्यसूत्र मैं यथार्थ निवृत्तिका प्ररूपण नांही तातैं कल्याणके सुखके अर्थनिकूं जिनसूत्रका सेवन निरंतर . करनां योग्य है ॥ २७ ॥
ऐसें सूत्रपाहुडकूं पूर्ण किया ।