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अष्टपाहुडमें सूत्रपाहुडकी भाषावचनिका । ६१ संस्कृत-सूत्रार्थपदविनष्टः मिथ्यादृष्टिः हि सः ज्ञातव्यः।
खेलेऽपि न कर्त्तव्यं पाणिपात्रं सचेलस्य ॥७॥ अर्थ-जो सूत्रका अर्थ अर पद है विनष्ट जाकै ऐसा है सो प्रगट मिथ्यादृष्टी है याहीतैं जो सचेल है वस्त्रसहित है ताकू 'खेडे वि' कहिये हास्य कुतूहलविौं भी पाणिपात्र कहिये हस्तरूपपात्रकरि आहारदान है सो नहीं करना । __भावार्थ--सूत्रविर्षे मुनिका रूप नग्न दिगंबर कह्या है अर जो ऐसे सूत्रके अर्थ करि तथा अक्षररूप पद जाकै विनष्ट हैं तथा आप वस्त्र धारि मुनि कहावै है सो जिन आज्ञातें भ्रष्ट भया प्रगट मिथ्यादृष्टी है यातें वस्त्रसहित• हास्य कुतूहलकरि भी पाणिपात्र कहिये आहारदान नहीं करनां । तथा ऐसा भी अर्थ होय है जो ऐसे मिथ्यादृष्टीकू पाणिपात्र आहार लेनां योग्य नाही ऐसा भेष हास्य कुतूहलकरि भी धारणां योग्य नाही, जो वस्त्रसहित रहनां अर पाणिपात्र भोजन करनां ऐसैं तौ क्रीडामात्र भी नहीं करनां ॥ ७ ॥ ___ आगें कहै है जो जिनसूत्रतें भ्रष्ट है सो हरि हरादिकतुल्य है तोऊ मोक्ष नहीं पायें है;गाथा-हरिहरतुल्लो वि गरो सग्गं गच्छेइ एइ भवकोडी ।
तह वि ण पावइ सिद्धिं संसारत्थो पुणो भणिदो॥८॥ संस्कृत-हरिहरल्योऽपि नरः स्वर्ग गच्छति एति भवकोटिः।
तथापि न प्राप्नोति सिद्धिं संसारस्थः पुनः भणितः॥८॥ अर्थ-जे नर सूत्रका अर्थ पदतै भ्रष्ट हैं सो हरि कहिये नारायण हर कहिये रुद्र इनि तुल्य भी होय अनेक ऋद्धिकरि युक्त होय तौहू सिद्धि कहिये मोक्ष ताकू प्राप्त नहीं होय । जो कदाचित् दानपूजादिक
१ पाणिपात्रे, ऐसा भी पाठ है।