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________________ श्री संवेगरंगशाला ५५७ प्रिय ! तुझे हितकर कहता हूँ कि तू भी इस प्रकार का विशिष्ट वर्तन कर कि जिसे इन्द्रिय आत्मारागी-निर्विकारी बने। इन्द्रिय जन्य सुख वह सुख की भ्रान्ति है, परन्तु सुख नहीं है, वह सुख भ्रान्ति भी अवश्य कर्मों की वृद्धि के लिए है। और उन कर्मों की वृद्धि भी एक दुःख का ही कारण है । इन्द्रियों के विषयों में आसक्त होने से उत्तम शील और गुण रूपी दो पंख के बिना का जीव हो जाता है और वह कटे पंख वाले पक्षी के समान संसार रूपी भयंकर गुफा में गिरता है। जैसे मधु लगे तलवार धार को चाटते पुरुष सुख मानता है, वैसे भयंकर भी इन्द्रियों के विषय सुख का अनुभव करते जीव सुख मानता है। अच्छी तरह खोज करने पर भी जैसे केले के पेड़ में कहीं सार रूप काष्ट नहीं मिलता है, वैसे इन्द्रिय विषयों में अच्छी तरह खोज करने पर भी सुख नहीं मिलता है। जैसे तेज गरमी के ताप से घबराकर शीघ्र भागकर पुरुष तुच्छ वृक्ष के नीचे अल्प छाया का सुख मानता है, वैसे ही इन्द्रिय जन्य सुख भी जानना। अरे। चिरकाल तक पोषण करने पर भी इन्द्रिय समूह किस तरह आत्मीय हो सकती है ? क्योंकि विषयों के आसक्त होते वह शत्र से भी अधिक दुष्ट बन जाती है। मोह से मूढ़ बना हुआ जो जीव इन्द्रियों के वश होता है उसकी आत्मा ही उसे अति दुःख देने वाली शत्र है । श्रोत्रेन्द्रिय से भद्रा, चक्षु के राग से समर धीर राजा, घ्राणेन्द्रिय से राजपुत्र, रसना से सोदास पराभव को प्राप्त किया तथा स्पर्शनेन्द्रिय से शतवार नगरवासी पुरुष का नाश हुआ । इस तरह वे एकएक इन्द्रिय से भी नाश होता है तो जो पांचों में आसक्त है उसका क्या कहना ? इन पाँचों का भावार्थ संक्षेप से क्रमशः कहता हूँ। उसमें श्रोत्रेन्द्रिय सम्बन्धी यह दृष्टान्त जानना। श्रोनेन्द्रिय की आसक्ति का दृष्टान्त वसन्तपुर नगर में अत्यन्त सुन्दर स्वर वाला और अत्यन्त कुरूपी, अति प्रसिद्ध पुष्पशाल नाम का संगीतकार था। उसी नगर में एक सार्थवाह रहता था। वह परदेश गया था और भद्रा नाम को उसकी पत्नी घर व्यवहार को सार सम्भाल लेती थी, उसने एकदा किसी भी कारण से अपनी दासियों को बाजार में भेजा और वे बहत लोगों के समक्ष किन्नर समान स्वर से गाते पुण्य शक्ति के गीत की ध्वनि सुनकर दीवार में चित्र हो वैसे स्थिर खड़ी रह गयीं। फिर लम्बे काल तक खड़ी रह कर अपने घर आई अतः क्रोधित होकर भद्रा ने कठोर वचन से उन्हें उपालम्भ दिया। तब उन्होंने कहा कि-स्वामिनी ! आप रोष मत करो। सुनो ! वहाँ हमने ऐसा गीत सुना कि जो पशु का भी
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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