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________________ ५५६ श्रो संवेगरंगशाला भी चल सकते हैं, परन्तु इन्द्रिय रूपी घोड़ों को वश करना वह दुष्कर है। अरे ! हमेशा विषय रूपी जंगल को प्राप्त करते-अर्थात् विषय में रमण करते निरंकुश के समान दुर्दान्त इन्द्रिय रूपी ऐरावत हाथी जीव के शील रूप वन को तोड़ते-फोड़ते परिभ्रमण करता है। जो तत्त्व का उपदेश देते हैं, तपस्या भी करते हैं और संजम गुणों को भी पालन करते हैं वे भी जैसे नपुंसक युद्ध में हारते हैं वैसे इन्द्रियों को जीतने में थक जाते हैं । शक्र जो हजार आंखों वाला हुआ, कृष्ण जो गोपियों का हास्य पात्र बने, पूज्य ब्रह्मा भी जो चतुर्मुख बने, काम भी जलकर भस्म हुआ, और महादेव भी जो अर्ध स्त्री शरीर धारी बने वे सारे दुर्जन इन्द्रिय रूपी महाराजा का पराक्रम है। जीव पाँच के वश होने से समग्र जीव लोक के वश होता है और पाँचों को जय करने से समस्त तीन लोक को जीतता है । यदि इस जन्म में इन्द्रिय दमन नहीं किया तो अन्य धर्मों से क्या है ? और यदि सम्यक रूप उन इन्द्रिय का दमन किया तो फिर शेष अन्य धर्मों से क्या ! अहो ! इन्द्रिय का समूह अति बलवान है, क्योंकि अर्थी और शास्त्र प्रसिद्ध दमन करने के उपायों को जानते हुए भी पुरुष उसे कर नहीं सकते हैं। मैं मानता हूं कि श्री जैनेश्वर और जैनमत में रहने वाले आराधकों को छोड़कर अन्य कोई तीन लोक में समर्थ बलवान इन्द्रियों की जीती नहीं है, जीतता नहीं है और जीतेगा भी नहीं। इस जगत में जो इन्द्रियों का विजयी है, वही शूरवीर है, वही पण्डित है, वही अवश्य गुणी है और वही कुल दीपक है। जगत में जिसका प्रयोजन-ध्येय इन्द्रिय दमन का है, उसके गुण, गुण हैं और यश यशरूप हैं, उसे सुख हथेली में रहा है, उसे समाधि है और वही मतिमान है। देवों की श्रेणी से पूजित चरण-कमल वाला इन्द्र जो स्वर्ग में आनन्द करता है, फणा के मणि की कान्ति से अन्धकार को नाश करने वाला फणीन्द्र नागराज भी जो पाताल में आनन्द करता है अथवा शत्रु समूह को नाश करने चक्रवर्ती के हाथ में चक्र झूलता है, वह सब जलती हुई इन्द्रियों को अंश मात्र दमन करने की लीला का फल है। उसको नमस्कार करो, उसकी प्रशंसा करो, उसकी सेवा करो और उसका सहायक बनो या शरण स्वीकार करो कि जिसने दुर्दभ इन्द्रिय रूपी गजेन्द्र को अपने आधीन किया है। वही सद्गुरू और सुदेव है, इसलिए उसे ही नमस्कार करो। उसने जगत को शोभायमान किया है कि विषय रूपी पवन से प्रेरित होते हुए भी जिसका इन्द्रिय रूपी अग्नि नहीं जलती है । उसने जन्म को पुण्य से प्राप्त किया है और जीवन भी उसका सफल है कि जिसने इन दुष्ट इन्द्रियों के बलवान विकार को रोका है। इसलिए हे देवानु
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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