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________________ ५२४ श्री संवेगरंगशाला आदि सर्व घोर पाप किए हों उनका हे क्षपक मुनि ! पुनः संवेग प्राप्त करते तू वांछित निर्विघ्न आराधना के लिए त्रिविध-त्रिविध सर्वथा गर्दा कर । और जब जवानी में सौत के प्रति अति द्वेष आदि के कारण उसके गर्भ को स्तम्भ न आदि करवाया हो, अथवा पति का घात करवाया, या वशीकरण कराया, कार्मण करना इत्यादि से उस सौत के पति का वियोग किया अथवा जीते पति को मरण तुल्य किया इत्यादि जो पाप किया हो, उसकी भी तू निन्दा कर । तथा व्यभिचारी जीवन में यदि उत्पन्न हुए जीते बालक को फेंक दिया, वेश्या जीवन में तूने पुत्र नहीं मिलने पर उस बालक का हरण किया, मनुष्य जीवन में ही राग द्वेष से परवश चित्त वाले मोह मूढ़ तूने दृढ़तापूर्वक मन्त्र, तन्त्र प्रयोग किए योजना बनाकर दूसरों को अत्यन्त पीड़ाकारी स्तम्भन मन्त्र से स्थिर किया हो, स्थान भ्रष्ट करवाना, विद्वेष करवाना, वशीकरण करना, इत्यादि किसी प्रकार जिन-जिन जीवों को इस जन्म या अन्य जन्मों में स्वयं अथवा पर द्वारा उस कार्य को किया हो उसका भी त्रिविध-त्रिविध खमत खामणा कर । क्योंकि यह तेरा क्षमापन का समय है । तथा भूत आदि हल्के जाति के देवों को भी मन्त्र, तन्त्रादि की शक्ति के प्रयोग से किसी तरह कभी भी कहीं पर भी बलात्कार से आकर्षण कर, आज्ञा देकर अपना इष्ट करवा कर पीड़ा दिलवाई अथवा किसी व्यक्ति में प्रवेश करवाया अथवा व्यक्ति में उतारकर यदि किसी भी देवों को स्तभन किया हो, ताड़न करके उस व्यक्ति में से छुड़ाया हो इत्यादि इस जन्म या अन्य जन्मों में, स्वयं या पर द्वारा इस तरह किया हो उसका भी त्रिविध-त्रिविध क्षमापना कर । क्योंकि यह तेरा खिमत खामना का समय है। इस तरह मनुष्य जीवन काल में तिर्यंच मनुष्य और देवों की विराधना को क्षमा करके हे क्षपक मुनि ! देवत्व में विराधना की जीवों को सम्यक् क्षमा याचना कर । वह इस प्रकार : भवनपति वाण व्यंतर, और वैमानिक आदि देव जीवन प्राप्त कर तूने यदि नरक, तिर्यंच और मनुष्यों या देवों को दुःखी किया, उनको राग द्वेष रहित मध्यस्थ मन वाला होकर हे क्षपक मुनि ! तू भावपूर्वक त्रिविध-त्रिविध क्षमापना कर। क्योंकि यह तेरा खिमत खामना का समय है। उसमें परमाधामी जीवन प्राप्त कर तूने नारकों को यदि अनेक प्रकार के दुःखों को दिया हो, उसे भी क्षमा याचना कर। और देव जीवन में राग-द्वेष और मोह से तूने उपभोग परिभोग आदि के कारण से पृथ्वीकाय आदि की तथा उसके आधार पर रहे द्वीन्द्रियादि जीवों की यदि विराधना की हो, उसे भी सम्यक् क्षमापना कर। क्योंकि यह तेरा खिमत खामणा का समय है । और देव जीवन में ही
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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