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________________ ५१८ श्री संवेगरंगशाला अनुमोदन किया हो उन सर्व का भी त्रिविध- विविध सम्यक् दुर्गंच्छा गर्हा कर । और यदि कोई भी पाप को प्रमाद से, अभिमान से, इरादा पूर्वक, सहसा अथवा उपयोग शून्यता से भी किया हो, उसकी भी त्रिविध-त्रिविध गर्हा कर । यदि दूसरे का पराभव करने से, अथवा दूसरे को संकट में देखकर सुख का अनुभव करने से, दूसरे की हांसी करने से, अथवा पर का विश्वासघात करने से, अथवा यदि पर दक्षिण्यता से या विषयों की तीव्र अभिलाषा से अथवा तो क्रीड़ा, मखौल, या कुतूहल में आसक्त चित्त होने से, अथवा आर्त्त रौद्र ध्यान से, वह भी सप्रयोजन या निष्प्रयोजन, इस तरह जो कोई भी पाप उपार्जन किया हो उन सबकी भी गर्हा कर । तथा मोहमूढ़ बने यदि तूने धर्म समाचारीसम्यग् आचार का या नियमों अथवा व्रतों का भंग किया हो उसकी भी प्रयत्नपूर्वक शुद्ध भाव से निन्दा कर । तथा इस जन्म में अथवा अन्य जन्म में मिथ्यात्व रूपी अन्धकार से अन्ध बनकर तूने सुदेव में यदि अदेव बुद्धि, अदेव में सुदेव बुद्धि, सुगुरू में अगुरू बुद्धि अथवा अगुरू में भी सुगुरू, तथा तत्त्व में अतत्त्व बुद्धि, या अतत्त्व में तत्त्व की बुद्धि और धर्म में अधर्म की बुद्धि अथवा अधर्म में धर्म को बुद्धि की हो, करवाई हो तथा अनुमोदन किया हो, उसकी विशेषतया निन्दा कर । एवं मिथ्यात्व मोह से मूढ़ बनकर सर्वप्राणियों के प्रति यदि मैत्री नहीं रखी हो, सविशेष गुण वालों के प्रति भी यदि प्रमोद न रखा हो, दुःखी पीड़ित जीवों के प्रति यदि कदापि करुणा नहीं की हो तथा पापासक्त अयोग्य जीव के प्रति यदि उपेक्षा न की हो और प्रशस्त शस्त्रों को भी सुनने की यदि इच्छा नहीं की, और श्री जिनेश्वर कथित चारित्र धर्म में यदि अनुराग नहीं किया तथा देव गुरू की वैयावच्च नहीं की, परन्तु उनकी यदि निन्दा की हो उन सर्व की भी, हे सुन्दर मुनिवर्य ! तू आत्मसाक्षी सम्पूर्ण रूप से निन्दा कर और गुरू के समक्ष गर्दा कर । भव्य जीवों के अमृत तुल्य अत्यन्त हितकर भी श्री जिनवचन को यदि सम्यग् रूप में नहीं सुना और सुनकर सत्य नहीं माना, तथा सुनने और श्रद्धा होने पर भी बल और वीर्य होने पर पराक्रम और पुरुषकार होने पर भी यदि सम्यक् स्वीकार नहीं किया, स्वीकार करके भी यदि सम्यक् पालन नहीं किया दूसरे उसे पालन में परायण जीवों के प्रति यदि प्रदेश धारण किया हो और प्रदेष से उसके साधन अथवा उनकी क्रिया को यदि भंग किया हो उन सबकी तू गर्हा कर ! क्योंकि हे सुन्दर मुनि ! यह तेरा गर्हा करने का अवसर है । तथा ज्ञान, दर्शन या चारित्र में अथवा तप या वीर्य में भी यदि कोई अतिचार सेवन किया हो तो उसकी निश्चय त्रिविध गर्दा कर ।
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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