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________________ श्री संवेगरंगशाला ५०६ 1 I को तोड़ा है, वह चारित्र भ्रष्ट है और केवल वेषधारी है उसका अनन्त संसार परिभ्रमण जानना । महाव्रत और अणुव्रतों को छोड़कर जो अन्य तप का आचरण करता है, वह अज्ञानी मूढात्मा डूबी हुई नाव वाला जानना । महान फलदायक ब्रह्मचर्य व्रत को छोड़कर जो सुख की अभिलाषा रखता है वह बुद्धि से कमजोर मूर्ख तपसी करोड़ सोना मोहर से काँच के पत्थर को खरीदता है । और चतुर्विध सकल श्री संघ वाले मन्डप में मिलने पर संसार रूपी भयंकर व्याधि से पीड़ित अन्यत्र रक्षण नहीं मिलने से इस महानुभाव वैद्य के शरण के समान हमारे शरण में आया है अतः अनुग्रह करने योग्य है । इस प्रकार समझकर हे सुन्दर मुनि ! परोपकार परायण श्रेष्ठ गुरू ने इन व्रतों को तेरे में स्थापन किए हैं । इसलिए कुविकल्पों से रहित बनकर तू इन व्रतों में सुदृढ़ बन जाओ । जैसे भीतर की शक्ति वाला मजबूर तू सभा घर के भार को उठाने में समर्थ बनता है वैसे व्रतों में अतिदृढ़ आत्मा उत्तम धर्म धुरा को उठाने में समर्थ बनते हैं । जैसे सर्व अंगों से समर्थ बैल भार को उठाने के लिए समर्थ होता है वैसे व्रतों में अतिदृढ़ आत्मा उत्तम धर्मधुरा को उठाने में समर्थ बनता है | जैसे अत्यन्त मजबूत अंग वालो छिद्र रहित नाव वस्तुओं को उठाने में समर्थ होता है वैसे ही व्रतों में भी सुदृढ़ और अतिचार रहित आत्मा धर्मगुण को उठा सकता है । जैसे पक्का हुआ और छिद्र बिना अखण्ड घड़ा पानी को धारण करने में अथवा रक्षण करने में समर्थ होता है वैसे ही व्रतों में सुदृढ़ और अतिचार रहित आत्मा धर्म गुणों को धारण करने में और रक्षण करने में समर्थ बन सकता है । इन व्रतों के सद्भाव से, पालन करने से, अति दृढ़ता से और अतिचार रहित से जीव इस अपार संसार समुद्र को तरे हैं, तर रहे हैं और तरेंगे । धन्यात्माओं को यह व्रत प्राप्त होता है, धन्य जीवों को ही इसमें अदृढ़ता आती है और धन्य पुरुषों को ही इसमें परम निरतिचार युक्त शुद्धि होती है इसलिए अति दुर्लभ पाँच महाव्रत रूपी रत्नों को प्राप्त कर तू फैंक मत देना और इससे आजीविका का आधार भी नहीं करना अन्यथा उज्जिका और भोगवती के समान तू भी इस संसार में कनिष्ठ स्थान को प्राप्त कर अपयश और दुःख को प्राप्त करेगा । इसलिए दृढ़ चित्त वाले तू पन्च महाव्रतों की धूरा को धारण करने में समर्थ बैल बनना, स्वयं इन व्रतों का पालन करना और दूसरों को भी उपदेश देना । इससे धन नाम के सेठ की पुत्रवधू रक्षिका और रोहिणी के समान उत्तम स्थान तथा कीर्ति को प्राप्त कर तू हमेशा सुखी होगा वह कथा इस प्रकार :
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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