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________________ श्री संवेगरंगशाला करना वह चौथे व्रत की दूसरी भावना जानना । स्त्री के अंगोपांग आदि को सरागवृत्ति से मन में स्मरण नहीं करना और रागपूर्वक देखना भी नहीं वह चौथे व्रत की तीसरी भावना जानना । पशु, नपुंसक और स्त्रियों से युक्त वसति को तथा स्त्री के आसन - शयन का त्याग करने वाले को चौथे व्रत की चौथी भावना होती है । केवल स्त्रियों के साथ अथवा स्त्री सम्बन्धी बातों को नहीं करने से और पूर्व में भोगे-भोगों का स्मरण नहीं करने से चौथे व्रत की पाँचवीं ५०८ भावना जानना । पाँचवें महाव्रत की भावना :- मन के अरूचिकर अथवा रूचिकर शब्दादि पाँच प्रकार के इन्द्रियों के विषयों में प्रदेष और गृद्धि आसक्ति नहीं करने वाले को पांचवें महाव्रत की पाँच भावना होती हैं । महाव्रत पालन का उपदेश : - इस प्रकार हे सुन्दर क्षपक मुनि ! आत्मा में व्रतों की परम दृढ़ता को चाहने वाला तू पाँच महाव्रतों की पच्चीस भावनाओं का चिन्तन करना । अन्यथा सख्त पवन से प्रेरित जंगल की कोमल लता के समान कोमल चंचल मन वाले और इससे इन व्रतों में अस्थिरात्मा हे क्षपक मुनि ! तू उसके फल को प्राप्त नहीं कर सकेगा ? इसलिए हे देवानु प्रिय ! पाँच महाव्रत में दृढ़ हो जाओ । क्योंकि यदि इन व्रतों में ठगा गया तो तू सर्वं स्थानों में ठगा गया है ऐसा जान । जैसे तुम्बे की दृढ़ता बिना चक्र के आरे अपना कार्य नहीं कर सकते हैं, वैसे महाव्रतों में शिथिल आत्मा के सर्व धर्म गुण निष्फल होते हैं जैसे वृक्ष की शाखा प्रशाखा, पुष्प और फलों का पोषक कारण उसका मूल होता है वैसे धर्म गुणों का भी मूल महाव्रतों की श्रेष्ठता दृढ़ता है । जैसे भीतर से घूण नामक जीवों से खाया गया खंभा घर के भार को नहीं उठा सकता है, वैसे ही व्रतों में शिथिल आत्मा धर्म की धूरा के भार को उठाने में कैसे समर्थ हो सकता है ? और जैसे छिद्र वाली निर्बल नाव वस्तुओं को उठाने में समर्थ नहीं है वैसे व्रतों में शिथिल, अतिचार वाला धर्म गुणों के भार को उठा नहीं सकता है । कच्चा और छिद्र वाला घड़ा भी जैसे जल को धारण करने अथवा रक्षण करने में समर्थ नहीं है वैस व्रतों में शिथिल अतिचार वाला मुनि धर्म गुणों को धारण करने में या रक्षण करने में समर्थ नहीं हो सकता है । इन व्रतों के अनादर से, अदृढ़ता से और अतिचार सहित जीवात्मा इस अपार संसार समुद्र में परिभ्रमण किया है, कर रहा है और परिभ्रमण करेगा । इसलिए हे सुन्दर मुनि ! तू सम्यग् संविज्ञ मन वाला होकर पूर्वाचार्य के इन वचनों का मन में चिन्तन कर। जिसने पांच महाव्रत रूपी ऊंचे किल्ले
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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