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________________ श्री संवेगरंगशाला ५०३ चारूदत्त के चरणों में गिरकर दो हस्त कमल को ललाट पर लगाकर जमीन पर बैठा । उस समय मणिमय मुगट धारण करने वाले मस्तक को नमाकर एक देव आया, उसने प्रथम चारूदत्त को और फिर मुनि को वन्दन किया । इससे विस्मितपूर्वक विद्याधर देव ने पूछा कि - अहो ! तूने साधु को छोड़कर प्रथम गृहस्थ के चरणों में क्यों नमस्कार किया ? देव ने कहा कि - यह चारूदत्त मेरा धर्म गुरू है, क्योंकि जब मैं बकरा था तब मृत्यु के समय श्री पंच परमेष्ठि नमस्कार मन्त्र को दिया था जिसके कारण अति दुर्लभ देव की लक्ष्मी प्राप्त करवाई है। इस चारूदत्त के द्वारा ही मैं मुनियों को तथा सर्वज्ञ परमात्मा को जानने वाला बना हूँ । फिर देव ने चारूदत्त को कहा कि - भो ! अब आप वरदान मांगो। तब चारूदत्त ने कहा- मैं स्मरण करूँ तब आ जाना । देव वह स्वीकार करके अपने स्थान पर गया । फिर विद्याधरों ने 'यह गुणवान है' ऐसा मानकर अनेक मणि और सुवर्ण के समूह से भरे हुए बड़े विमान में बैठकर चम्पापुरी लाकर अपने भवन में रखा और वहाँ चारूदत्त श्रेष्ठ ने उन्नति की । इस तरह इस जगत में भी दुष्ट और शिष्ट की संगत से वैसा ही फल को देखकर निर्मल गुण से भरे हुए उत्तम बुद्धि वाले वृद्ध की सेवा करने में प्रयत्न करना चाहिए। और धीर पुरुष, वृद्ध प्रकृति वाले तरुण अथवा वृद्ध की नित्य सेवा करते और गुरुकुल वास को नहीं छोड़ने वाले ब्रह्मव्रत को प्राप्त करते हैं । बार-बार स्त्रियों के मुख और गुप्त अंगों को देखने वाला अल्प सत्त्व वाले पुरुष का हृदय कामरूपी पवन से चलित होता है । क्योंकि स्त्रियों की धीमी चाल, उसके साथ खड़ा रहना, विलास, हास्य, शृंगारिका - काम विकार चेष्टा तथा हाव भाव द्वारा, सौभाग्य, रूप, लावण्य और श्रेष्ठ आकृति की चेष्ठा द्वारा, टेढ़ी-मेढ़ी दृष्टि द्वारा देखना, विशेष आदरपूर्वक हँसना, बोलना, रसपूर्वक क्षण-क्षण बोलने के द्वारा, तथा आनन्दपूर्वक क्रीड़ा करने के द्वारा, स्वभाव से ही स्निग्ध विकारी और स्वभाव से ही मनोहर स्त्री को एकान्त में मिलने से प्राय: कर पुरुष का मन क्षोभित होता है और फिर अनुक्रम से प्रीति बढ़ने से अनुराग वाला बनता है फिर विश्वास वाला निर्भय और स्नेह के विस्तार वाला लज्जायुक्त भी पुरुष वह क्या-क्या नहीं करता है ? अर्थात् सभी अकार्यों को करता है । जैसे कि माता, पिता, मित्र, गुरु, शिष्ट लोग तथा राजा आदि की लज्जा को अपनी गौरव को, राग और परिचय को भी मूल में से त्याग कर देता है । कीर्ति धन का नाश, कुल मर्यादा, प्राप्त हुआ धर्म गुणों को, और हाथ, पैर, कान, नाक आदि के नाश को भी वह नहीं गिनता है । इस तरह 1
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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