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________________ श्री संवेगरंगशाला आगे प्रस्थान करते एक तुच्छ गाँव में उसको रूद्र नामक मामा का मित्र मिला। उसके साथ ही वह वहाँ से टंकण देश में पहुँचा । और वहाँ से दो बलवान बकरे लेकर दोनों सुवर्ण भूमि की ओर चले । दूर पहुँचने के बाद रूद्र ने चारूदत्त को कहा कि हे भाई! यहां से आगे जा नहीं सकते, अतः इन बकरों को मारकर रोम का विभाग अन्दर कर अर्थात् उसे उल्टा कर थैला बना दो और शस्त्र को लेकर उसमें बन्द हो जाओ जिससे माँस की आशा से भारंड पक्षी उसे उठाकर सुवर्ण भूमि में रखेंगे इस तरह हम वहाँ पहुँच जायेंगे और अत्यधिक सोने को प्राप्त करेंगे। ऐसा सुनकर उसे करूणा उत्पन्न हुई और चारूदत्त ने कहा- नहीं, नहीं ऐसा नहीं बोल । हे भद्र ! ऐसा पाप कौन करेगा ? जीव हिंसा से मिलने वाला धन मेरे कुल में भी प्राप्त नहीं हो । रूद्र ने कहा- मैं अपने बकरे को अवश्यमेव मारूँगा । इसमें तुझे क्या होता है ? इससे चारूदत्त उद्विग्न मन द्वारा मौन रहा । फिर अति निर्दय मन वाला रूद्र ने बकरे को मारने लगा, तब चारूदत्त ने बकरे के कान के पास बैठकर पाँच अणुव्रत का सारभूत श्री पंच परमेष्ठि नमस्कार मन्त्र सुनाया और उसके श्रवण से शुभभाव द्वारा मरकर बकरे देवलोक में उत्पन्न हुए । फिर उस रूद्र शीघ्र उस चमड़े में चारूदत्त को बन्द कर स्वयं दूसरे बकरे के चमड़े में प्रवेश किया। उसके बाद माँस के लोभ से भारंड पक्षियों ने दोनों को उठाया, परन्तु जाते हुए पक्षियों के परस्पर युद्ध होने से चारूदत्त दो भारंड पक्षी के चोंच में से किसी तरह पानी के ऊपर गिरा और चमड़े को शस्त्र से चीरकर गर्भ से निकलता है वैसे वह बाहर निकला। इस तरह दुर्जन की संगति से उसे इस प्रकार संकट का सामना करना पड़ा। अब शिष्टजन के संगत से जिस प्रकार उसने लक्ष्मी को प्राप्त की, इसका प्रबन्ध आगे है । ५०२ फिर उस जल को पारकर वह नजदीक में रहे रत्नद्वीप में गया और उसे देखता हुआ पर्वत के शिखर पर चढ़ गया । वहाँ काउसग्ग में रहे अमितगति नामक चारण मुनि को देखा, और हर्ष से रोमांचित शरीर वाला बनकर उसने वन्दना की । मुनिश्री ने काउस्सग्ग को पारकर धर्म लाभ देकर कहा कि हे चारूदत्त ! तू इस पर्वत पर किस तरह आया ? हे महाशय ! क्यों तुझे याद नहीं ? कि पूर्व में चम्पापुरी के वन में गया था । वहाँ तूने जिस शत्रु के बंधन से मुझे छुड़ाया था । वहीं मैं कई दिनों तक विद्याधर की राज्य लक्ष्मी को भोगकर दीक्षा स्वीकार कर यहाँ आतापना ले रहा हूँ । जब अमितगति मुनि इस तरह बोल रहे थे, उस समय कामदेव के समान रूप वाले दो विद्याधर कुमार आकाश में से वहाँ नीचे उतरे। उन्होंने साधु को वन्दन किया, और
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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