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________________ श्री संवेगरंगशाला यथार्थ व्याधि और वास्तविक दरिद्रता है। यह प्रमाद तत्त्व से क्षय होता है यथार्थ दुःखों का समूह है और वास्तविक ऋण है। जो श्रुत केवली आहारक लब्धि वाले और सर्व मोह का उपशम करने वाले भी प्रमाद वश गिरता है तो दूसरों की तो बात ही क्या करना ? अल्प अन्त र वाली अंगुलियाँ की हथेली में रहे हए जल के समान प्रमाद से पुरुष के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चारों पुरुषार्थ नष्ट होते हैं। यदि इस जन्म में एक बार भी कोई जीव इस प्रमाद से आधीन हो तो दुःख से पराभव प्राप्त कर वह लाख-करोड़ों जन्म तक संसार में भटकता है। इस प्रमाद का निरोध नहीं करने से सकल कल्याण का निरोध होता है और प्रमाद का निरोध करने से समग्र कल्याण का प्रादुर्भाव होता है। इसलिए हे देवानुप्रिय । क्षपक मुनि ! इस जन्म में पत्नी के निग्रह के समान प्रमाद का निरोध तुझे हितकर होगा। इसलिए तं उसमें ही प्रयत्न को कर। इस तरह अनुशासित द्वार में विस्तृत अर्थ सहित और भेद प्रभेद सहित प्रमाद निग्रह नाम का चौथा अन्तर द्वार कहा है । अब प्रमाद के निग्रह में निमित्त भूत सर्व प्रतिबन्ध त्याग नाम का पाँचवां अन्तर द्वार संक्षेप से कहते हैं । पाँचवाँ सर्व संग वर्जन द्वार :-श्री जिन वचन के जानकार ने प्रतिबन्ध को आसक्ति रूप कहा है, वह प्रतिबन्ध-आसक्ति द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आश्रित चार प्रकार का कहा है। उसमें यहाँ सचित, अचित, और मिश्र द्रव्य तीन प्रकार का है । और उस प्रत्येक द्रव्य के, द्विपद, चतुष्पद और अपद इस तरह तीन-तीन भेद हैं। इस तरह विषय के भेद से उस भेद के ज्ञाता शास्त्रज्ञों ने संक्षेप से द्रव्य प्रतिबन्ध ३४३=६ प्रकार का कहा है। पहला भेद के अन्दर पुरुष, स्त्री, तोता आदि, दूसरे में घोड़ा, हाथी आदि, और तीसरे में पुष्प, फल आदि इस तरह ये सचित द्रव्य के भेद जानना। चौथे भेद में गाड़ी, रथ आदि, पाँचवें में पट्टा, पलंग, चौकी आदि और छटे में सुवर्ण आदि ये अचित्त द्रव्य के भेद जानना । सातवें भेद में आभूषण, वस्त्र, सहित पुरुष आदि, आठवें में अम्बाड़ी आभूषण आदि सहित हाथी, घोड़े आदि तथा नौवें भेद में पुष्प माला आदि मिश्रत द्रव्यगत पदार्थ जानना। और गाँव, नगर, घर, दुकान आदि में जो प्रतिबन्ध है वह क्षेत्र प्रतिबन्ध है तथा वसन्त, शरद, आदि ऋतु में या दिन, रात्री में जो आसक्ति वह काल प्रतिबन्ध जानना । एवं सुन्दर शब्द रूप आदि आसक्ति अथवा क्रोधमान आदि का जो हमेशा त्याग नहीं करना उसे भाव प्रतिबन्ध जानना। ये सर्व प्रकार से भी प्रतिबन्ध करता हो तो परिणाम से कठोर दीर्घकाल तक के दुःखों को देने वाला है, ऐसा श्री
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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