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________________ ४६४ श्री संवेगरंगशाला 1 कैसा अकार्य है कि राग, द्वेष से असाधारण अति कड़वा फल देता है, ऐसा जानते हुये भी जीव उसका सेवन करता है । यदि राग-द्वेष नहीं होता तो कौन दुःख प्राप्त करता ? अथवा सुखों से किसको आश्चर्य होता ? अथवा मोक्ष को कौन प्राप्त नहीं करता ? इसलिए बहुत गुणों का नाशक सम्यक्त्व और चारित्र गुणों का विनाशक पापी राग, द्वेष के वश नहीं होना चाहिए । (६) श्रुतिभ्रंश :- यह प्रमाद भी स्व-पर उभय को विकथा कलह आदि विघ्न करने के द्वारा होती है । श्री जैनेश्वर की वाणी के श्रवण में विघात करने वाला जानना । यह श्रुति भ्रंश कठोर उत्कट ज्ञाना वरणीय कर्म का बन्धन का एक कारण होने से शास्त्र के अन्दर ध्वजा समान परम ज्ञानियों ने उसे महापापी रूप में बतलाया है । (७) धर्म में अनादर : - इस प्रमाद का ही अति भयंकर भेद है । क्योंकि धर्म में आदर भाव से समस्त जीवों को कल्याण की प्राप्ति होती है । बुद्धिमान ऐसा कौन होगा कि जो मुसीबत में चिन्तामणी को प्राप्त करके कल्याण का एक निधान रूप उस धर्म में अनादर करने वाला बनेगा ? अतः धर्म में सदा सर्वदाआदर सत्कार करे । (८) मन, वचन, काया का दुष्प्रणिधन :- यह भी सारे अनर्थ दण्ड का मूल स्थान है । इसे सम्यग् रूप जानकर तीन सुप्रणिधान में ही लगाने का प्रयत्न करना चाहिए । इस तरह मद्य आदि अनेक प्रकार के प्रमाद को कहा है । वह सद्धर्म रूपी गुण का नाशक और कुगति में पतन करने वाला है । इस संसार रूपी जंगल में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आश्रित जीवों की जो भी दुःखी अवस्था होती है, वह सर्व अति कटु विपाक वाला, जन्मान्तर में सेवन किया हुआ पापी प्रमाद का ही विलास जानना । अति बहुत श्रुत को जानकर भी और अति दीर्घ चारित्र पर्याय को पालकर भी पापी प्रमाद के आधीन बना मूढात्मा सारा खो देता है । संयम गुणों की वह उत्तम सामग्री को और ऐसी ही महाचारित्र रूपी पदवी को प्राप्त कर अथवा मोक्ष मार्ग प्राप्त कर प्रमादी आत्मा सर्वथा हार जाती है । हा ! हा ! खेद की बात है कि ऐसे प्रमाद को धिक्कार हो ! देवता भी जो दीनता धारण करते हैं, पश्चाताप और पराधीनता आदि का अनुभव करता है, वह जन्मान्तर में प्रमाद करने का फल है । जीवों को जो अनेक प्रकार का तिर्यंच योनि, तुच्छ मनुष्य जीवन और नरकमें उत्पन्न होता है वह भी निश्चय जन्मान्तर में प्रमाद करने का फल है। यह प्रमाद वह वस्तुतः जीवों का शत्रु है, वह तत्त्वतः भयंकर नरक है,
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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