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________________ ४५० श्री संवेगरंगशाला कि जो आप श्री जैन कथित दीक्षा को निरति चार रूप में पालन करते हो, और दुर्गति का हेतुभूत कठोर बंधन रूप राज्य बंधन में पड़ा मैं कुछ भी धर्म कार्य नहीं कर सकता हूँ। ऐसा कहने पर भी वृक्ष के सामने कठोर दृष्टि से देखते वह जब कुछ भी नहीं बोला तब वैराग्य को धारण करते राजा ने फिर कहा कि-हे मूढ़ ! पूर्व में भी दीक्षा को स्वीकार करते तुझे मैंने बहुत रोका था और उस समय राज्य देता था। अब अपनी प्रतिज्ञा को खतम करने वाला तृण से भी हल्के बने तुझे इस राज्य को देने पर क्या सुख होगा? ऐसा कह कर राजा ने सारा राज्य उसको दे दिया और स्वयं लोच करके उसका सारा वेश ग्रहण किया। उसके बाद स्वयं दीक्षा को स्वीकार करके गुरु महाराज के पास गया और पुनः वहाँ विधपूर्वक दीक्षा को स्वीकार करके छदू (दो उपवास) के पारणे में शरीर के प्रतिकूल आहार लेने से पेट में कठोर दर्द उत्पन्न हुआ और मरकर सवार्थ सिद्ध में देव उत्पन्न हुआ। इधर कंडरीक अन्तःपुर में गया, मन्त्री, सामन्त दण्ड नायक आदि सारे लोगों ने 'यह दीक्षा छोड़ने वाला पापी है' इस तरह तिरस्कार किया, विषयों की अत्यन्त गद्धि से प्रचुर रस वाले पानी और भोजन में आसक्त बना इससे विशूचिका रोग उत्पन्न हुआ, अधुरा आयुष्य तोड़कर उपक्रम से मरकर वह रौद्रध्यान के कारण सातवीं नरक में नारकी का जीव बना। इस तरह विषयासक्त जीव विषयों को प्राप्ति किए बिना भी दूति को प्राप्त की। इसलिए हे सुन्दर ! यहाँ बतलाए गये दोषों से दूषित पापी विषयों को विशेष प्रकार से छोड़कर आराधना में एक स्थिर मन वाला तु निष्पाप निर्मल मन को धारण कर । इस तरह विषय द्वार को कहा, अब क्रमानुसार तीसरा कषाय रूप प्रमाद द्वार को अल्प मात्र कहता तीसरा कषाय प्रमाद का स्वरूप :-यद्यपि पूर्व में कषायों की बहुत व्याख्या और युक्तियों के समूह से कहा है, फिर भी वह अति दुर्जय होने से पुनः अल्प मात्र से कहते हैं। पिशाच के समान फिर से खेद कारक और अशुभ या असुख करने का एक व्यवसाय वाला यह दुष्ट कषाय जीव को विडम्बना कारक है । प्रथम प्रसन्नता को दिखाकर फिर अनिष्ट करके वह दुष्ट अध्यवसाय का जनक है, सिद्धि की सुख को रोकने वाला और परलोक में अनिष्ट की प्राप्ति कराने वाला है। कषाय सेवन करने से इस लोक में महा संकट में गिराता है अति विपुल भी सम्पत्ति को नाश करता है और कर्तव्य से वंचित करता है। आश्चर्य की बात है कि केवल एक कषाय करने से पुरुष धर्मश्रुत यश, को अथवा सभी गुण समूह को जलांजलि देकर नाश करता है । कषाय करने
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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